भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) में वैश्विक आवाज़ों ने दो दमदार फिल्मों के ज़रिए मातृत्व, पहचान और इतिहास जैसे विषयों को नए दृष्टिकोण से परखा
अकिनोला की 'माई फ़ादर्स शैडो' जीवन और राजनीति की कड़वी सच्चाइयों को बेपर्दा करती है
'मदर्स बेबी' गहरे भावों में डूबी कहानी कहती है और मातृत्व के अनेक रंगों को सामने रखती है
भारत के 56वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) में आज दो बिल्कुल अलग, लेकिन भावनात्मक रूप से गूँजने वाली दुनियाएं एक साथ आईं। फ़िल्म 'मदर्स बेबी' और 'माई फ़ादर्स शैडो' की टीमों ने शिल्प, स्मृतियों और इस बात पर एक जीवंत चर्चा की कि सिनेमा किस तरह हमारे जीए हुए अनुभवों को अंतरंग रूप में दर्शाता है। इस सत्र में 'मदर्स बेबी' के सिनेमैटोग्राफर रॉबर्ट ओबेरेनर और प्रोडक्शन डिज़ाइनर जोहान्स सलात के साथ, 'माई फ़ादर्स शैडो' के निर्देशक अकिनोला ओगुनमेड डेविस शामिल हुए। अकिनोला की फ़िल्म इस समय वैश्विक स्तर पर सुर्खियाँ बटोर रही है। यह यूके की आधिकारिक ऑस्कर एंट्री है और कान्स में शामिल होने वाली पहली नाइजीरियन फिल्म भी है।

एक दिन, लेकिन पूरी ज़िंदगी का एहसास: अकिनोला की सहज फिल्ममेकिंग यात्रा
बातचीत की शुरुआत करते हुए अकिनोला ने बताया कि 'माई फ़ादर्स शैडो' की जड़ें उनके भाई द्वारा लिखी गई एक शुरुआती लघु फिल्म में हैं। 1993 के नाइजीरियाई चुनावों की पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म उनके बचपन की राजनीतिक तनाव से भरी यादों को प्रतिबिंबित करती है।

अकिनोला ने समझाया कि उनकी रचनात्मक प्रक्रिया का अधिकांश भाग सहज प्रवृत्ति से निर्देशित था। उन्होंने कहा, "सूक्ष्म कहानी पिता और उनके लड़कों की है। वृहद कहानी चुनाव की है, और सब कुछ मिश्रित हो जाता है।" फ़िल्म एक ही दिन के भीतर आगे बढ़ती है, एक ऐसा चुनाव जिसे अकिनोला मुक्त करने वाला बताते हैं। उन्होंने कहा, "इसने हमें स्वाभाविक रूप से तनाव बनाने की अनुमति दी। और एक ही दिन में सब कुछ होने से, हम निरंतरता से बंधे नहीं थे। हम भावनाओं पर ध्यान केंद्रित कर सकते थे।"
फिल्ममेकर ने शूटिंग के दौरान आई भावनात्मक और तकनीकी चुनौतियों पर बेझिझक बात की, खासकर बीच वाले सीक्वेंस पर-जहां 16mm फिल्म गर्मी और आवाज़ के बीच संघर्ष करती रही। एक अंतिम संस्कार वाले दृश्य ने तो उन्हें पूरी तरह थका दिया। उन्होंने स्वीकार किया, “मैं दो दिन बिस्तर पर ही रहा और रोता रहा,” और ऐसे पलों को उन्होंने “शक्तिशाली फिल्ममेकिंग की गवाही” बताया।
इस दौरान अकिनोला ने दर्शकों को नाइजीरिया की आत्मा की एक गहरी झलक भी दी। उन्होंने देश के राजनीतिक परिदृश्य, भाषाई विविधता और इतिहास की शिक्षा में मौजूद खाईयों का ज़िक्र किया। अंग्रेज़ी, क्रियोल और स्ट्रीट वर्नैक्युलर-ये सभी उनकी फिल्म में जगह पाते हैं, और अकिनोला के लिए यह भाषाई सहजता नाइजीरिया की सामाजिक-सांस्कृतिक बनावट को दर्शाती है। उनके विचारों ने एक ऐसे देश की जीवंत तस्वीर पेश की, जिसे आज की वैश्विक सिनेमाई इतिहास में उतनी जगह नहीं मिली, जितनी मिलनी चाहिए।
'मदर्स बेबी' में मातृत्व की अनकही, बेचैन कर देने वाली परतें
‘मदर्स बेबी’ की टीम के लिए फिल्म की भावनात्मक धुरी एक ऐसी महिला की यात्रा है, जो प्रसव के बाद आने वाले उलझन भरे दौर से गुजर रही है। सिनेमैटोग्राफर रॉबर्ट ओबर्राइनर ने बताया कि उनका पहला उद्देश्य था “उन असली बदलावों को दिखाना, जिनसे एक महिला प्रसव के दौरान गुजरती है।”
फिल्म जूलिया की कहानी का अनुसरण करती है जो एक मशहूर ऑर्केस्ट्रा कंडक्टर है और जिसकी बच्ची एक प्रयोगात्मक प्रजनन तकनीक से पैदा होती हैऔर जो उसके लिए किसी अनजानी-सी महसूस होती है। रॉबर्ट के अनुसार उनकी विजुअल अप्रोच इस तरह बनाई गई कि दर्शक “उसके साथ चल सकें,” और उसके अस्थिर मनोवैज्ञानिक संसार में प्रवेश कर सकें।
प्रोडक्शन डिज़ाइनर जोहान्स सलात ने कहानी के विषय के महत्व पर जोर दिया: उन्होंने कहा, "यह एक ऐसा विषय है जो महिलाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है," और फ़िल्म को एक सार्वभौमिक कथा बताया जो "कहीं भी हो सकती है।" उनके लिए, फ़िल्म की दुनिया बनाना चुनौतीपूर्ण और सहज दोनों था, और उन्होंने जिस स्थान को अंततः चुना, वह "कहानी से संबंधित महसूस होता था।"
फिल्म का तनाव धीरे-धीरे बढ़ता है। दूसरे लोग बच्चे को जैसे देखते हैं और मां जैसे महसूस करती है, दोनों के बीच के हल्के लेकिन गहरे फर्क में। रॉबर्ट ने कहा, “यही वह जगह है जहां सस्पेंस शुरू होता है।” उन्होंने फिल्म के ओपन-एंडेड क्लाइमैक्स पर भी बात की, जिसे उन्होंने एक ऐसी पहेली बताया जिसे दर्शकों को खुद सुलझाना होगा।
राह बदलने की कला: फिल्ममेकिंग एक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया
दोनों टीमों ने फिल्म निर्माण को एक लगातार बदलते रहने वाली प्रक्रिया बताया। रॉबर्ट ने कहा कि ‘मदर्स बेबी’ में कई बार ऐसा हुआ कि फिल्म के आगे के हिस्से के लिए सोचे गए शॉट्स शुरुआत में इस्तेमाल हो गए। उन्होंने स्वीकार किया कि बतौर सिनेमैटोग्राफर वह ऐसे बदलावों का पहले विरोध करते थे, लेकिन निर्देशक ने उन्हें याद दिलाया,“भावना पहले आती है, निरंतरता बाद में।”
जोहान्स ने भी सहमति जताई और कहा कि फिल्म बनाना अक्सर आपको वहां पहुंचा देता है, जहां जाने का आपने सोचा भी नहीं होता। उन्होंने कहा, “कई बार आप उस जगह पहुंचते हैं जो आपकी कल्पना से कहीं बेहतर होती है।” अकिनोला ने भी यही विचार दोहराते हुए कहा, “आप फिल्म को तीन बार बनाते हैं- लिखते समय, शूट करते समय और एडिटिंग में।” उनके अनुसार रास्ते में होने वाले बदलाव भटकाव नहीं बल्कि खोज होते हैं।
सत्र के समापन तक एक जीवंत अनुभवों का संगम सामने था-दो फिल्में, दो बिलकुल अलग दुनिया से निकली हुईं, लेकिन जुड़ी हुईं अपने सहज रचनात्मक प्रवाह, कलात्मक सच्चाई और कहानी कहने की उस अनिश्चित, जंगली यात्रा पर अटूट विश्वास से जुड़ी हुई थीं।
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इफ्फी के बारे में
1952 में स्थापित, भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) दक्षिण एशिया के सिनेमा का सबसे पुराना और सबसे बड़ा सिनेमा महोत्सव रहा है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार के राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) और गोवा एंटरटेनमेंट सोसाइटी ऑफ गोवा (ईएसजी) द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित यह महोत्सव एक वैश्विक सिनेमाई शक्ति केंद्र बन चुका है-जहां बहाल किए गए क्लासिक्स का संगम साहसिक प्रयोगों से होता है और जहां दिग्गज उस्तादों के साथ नए फिल्मकार भी एक ही मंच साझा करते हैं। जो चीज इफ्फी को खास बनाता है, वह है इसका जीवंत मिश्रण- अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं, सांस्कृतिक प्रदर्शन, मास्टरक्लास, श्रद्धांजलि, और जोश से लबरेज वेव्स फिल्म बाजार, जहाँ विचार, सौदे और सहयोग उड़ान भरते हैं। गोवा के मनमोहक समुद्री तटों की पृष्ठभूमि में 20 से 28 नवंबर तक आयोजित होने वाला 56वां संस्करण भाषाओं, शैलियों, नवाचारों और आवाज़ों का एक शानदार संगम पेश करने का वादा करता है जो वैश्विक मंच पर भारत की रचनात्मक प्रतिभा का एक डूबो देने वाला उत्सव है।
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