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इफ्फी-52 'राजा राम तिवारी - भूले भटके वालों का बाबा' की मानवतावादी भावना का जश्न मनाता है, जिन्होंने लाखों खोए हुए तीर्थयात्रियों को उनके प्रियजनों से मिलाने में मदद की


"गंगापुत्र - जर्नी ऑफ अ सेल्फलेस मैन" को बनाना मेरे जीवन की सबसे निस्वार्थ रचनात्मक यात्रा रही है: इफ्फी-52 में भारतीय पैनोरमा फ़िल्म के निर्देशक जय प्रकाश

"मैं केंद्र और राज्य सरकारों से अपील करता हूं कि वे राजा राम तिवारी को मानवता के प्रति उनके अद्भुत योगदान के लिए मान्यता और सम्मान दें"

"इफ्फी ने मुझे मेरी पत्नी से फिर मिलवा दिया, ये मेरा अपना खोया पाया शिविर है"

"गंगापुत्र - द सेल्फलेस जर्नी ऑफ अ मैन, को बनाना मेरे जीवन की सबसे निस्वार्थ रचनात्मक यात्रा रही है।" निर्देशक जय प्रकाश ने कुछ इस अंदाज़ में राजा राम तिवारी की निस्वार्थ यात्रा का दस्तावेजीकरण करने की अपनी यात्रा को परिभाषित किया। राजा राम तिवारी एक सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने अपने प्रियजनों से बिछड़े लोगों को मिलाने के काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गोवा में 20 से 28 नवंबर, 2021को हो रहे भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव (इफ्फी) के 52वें संस्करण के मौके पर आज 23 नवंबर, 2021 को एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए इस डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म के निर्देशक ने ये बातें कहीं। इस फ़िल्म को इफ्फी के भारतीय पैनोरमा खंड की गैर फीचर फ़िल्म श्रेणी में प्रस्तुत किया गया है।

तो आखिर ये राजा राम तिवारी कौन थे और उन्होंने लोगों को अपने प्रियजनों से कैसे मिलवाया? साधारण धोती और कुर्ता पहनने वाले राजा राम तिवारी, जिन्हें प्यार से 'भूले भटके वालों का बाबा' के नाम से जाना जाता है, वे कुंभ मेले में खो जाने वाले तीर्थयात्रियों को उनके परिवारों से मिलाने में मदद करने के आजीवन मिशन पर थे। इस मिशन को पूरा करने के लिए उन्होंने 1946 में 'खोया पाया शिविर' संगठन की स्थापना की जो लगभग 15 लाख महिलाओं और पुरुषों व 21,000 से ज्यादा बच्चों को बचाने और उन्हें अपने प्रियजनों से मिलवाने में कामयाब रहा है। ये लोग 4,700 एकड़ में फैले तीर्थ स्थल पर उस तीर्थयात्रा के दौरान खो गए थे जो कम से कम 41 दिनों तक चलती है।

फोटो क्रेडिट: फेसबुक/प्रदीप गुप्ता

तिवारी की विरासत यूं ही बरकरार है। 2016 में 88 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद भी उनका शिविर कुंभ मेले, अर्ध कुंभ मेले और माघ मेले में तीर्थयात्रियों के लिए मार्गदर्शक प्रकाश बना हुआ है, और बेजोड़ उत्साह और समर्पण के साथ जरूरतमंदों की सेवा कर रहा है।

इस फ़िल्म की उत्पत्ति पर बात करते हुए निर्देशक जय प्रकाश ने कहा कि ये फ़िल्म बड़े परदे पर राजा राम तिवारी के उन अद्वितीय और निरंतर प्रयासों को लेकर आई है, जो 70 से ज्यादा वर्षों तक जारी रहे हैं। उन्होंने कहा, "जब मैं अपने गृहनगर प्रयागराज में था तब मुझे आइडिया आया कि इन बेहद सरल और विनम्र इंसान की कहानी को सबके सामने लाऊं, जिन्होंने लोगों को उनके प्रियजनों से मिलाने हेतु गर्मजोशी, प्रेम और करुणा के सेतुओं का निर्माण करने के लिए अथक प्रयास किया।"

ये डॉक्यूमेंट्री इन परोपकारी इंसान की प्रचुरता भरी जिंदगी को समेटती है और एक ताकतवर ढंग से उनके निस्वार्थ काम के सामाजिक महत्व को सामने लाती है।

प्रकाश ने इफ्फी में मौजूद सिने प्रेमियों को बताया कि कैसे उनकी टीम ने ये सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रयास किए कि दर्शक सामाजिक कार्यकर्ता राजा राम तिवारी के योगदान के दायरे और हद को अनुभव कर सकें। उन्होंने कहा, "हमने समय-समय पर उपलब्ध विभिन्न उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए 10 वर्षों की अवधि में घटी घटनाओं को सावधानीपूर्वक रिकॉर्ड किया। दर्शक राजा राम तिवारी के पांच कुंभ मेलों, सात अर्धकुंभ मेलों और 54 माघ मेलों में काम करने के अनुभव को देख सकते हैं।”

तिवारी द्वारा स्थापित 'खोया-पाया शिविरों' को प्रशासन और पुलिस जैसे स्थानीय अधिकारियों से मदद मिलती है। हालांकि कुछ लोग बार-बार कोशिश करने के बाद भी अपने परिवारों से नहीं मिल पाते हैं। ऐसे असहाय लोगों और उनके सामने मौजूद विकल्पों पर बात करते हुए निर्देशक ने कहा: “उन्हें अधिकारियों से संपर्क करने के बाद पुनर्वास का मौका दिया जाता है। अगर वे बच्चे हैं तो उन्हें उचित प्रक्रिया के माध्यम से इच्छुक लोगों द्वारा गोद लिया जा सकता है।"

प्रकाश ने ताउम्र चले तिवारी के मानवीय प्रयासों को आधिकारिक मान्यता देने के लिए एक भावुक आह्वान किया। उन्होंने कहा, "हालांकि राजा राम तिवारी ने अपने जीवनकाल में कभी किसी मान्यता के लिए लालसा नहीं की, लेकिन मैं केंद्र और राज्य सरकारों से अपील करता हूं कि वे मानवता के लिए उनके इस अविश्वसनीय योगदान के लिए उन्हें मान्यता दें और सम्मानित करें।" निर्देशक प्रकाश को उम्मीद है कि देश भर के दर्शकों को इस डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से राजा राम तिवारी के निस्वार्थ काम को देखने और सराहने का मौका मिलेगा।

इस फ़िल्म बनाने की अपनी आकांक्षा को साकार करने के लिए निर्देशक को किन परेशानियों से गुजरना पड़ा, ये उन्होंने साझा किया। उन्होंने कहा, “मुझे गंभीर वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ा क्योंकि फ़िल्म पूरी तरह से स्व-वित्तपोषित थी। फिर भी मैं अपने रास्ते पर अडिग रहा और इस काम को पूरा किया।”

उन्होंने बताया कि कैसे इस संघर्ष ने एक तरह से उनके विवाहित जीवन को भी जोखिम में डाल दिया। उन्होंने कहा, "ये एक आसान रास्ता नहीं था। मेरी अपनी पत्नी ने मुझे गलत समझा क्योंकि मैं इस डॉक्यूमेंट्री को बनाते समय कई दिनों तक घर से दूर रहा। मैं नवविवाहित था जब मैंने 2011 में इस फ़िल्म को बनाना शुरू किया था। जब तक मैंने इसे खत्म किया, तब तक मेरी निजी जिंदगी टूटने की कगार पर थी।"

निर्देशक जय प्रकाश ने आंखों में खुशी की चमक के साथ याद किया कि इफ्फी ने इस लहर का बहाव उनके पक्ष में मोड़ने में मदद की। उन्होंने कहा, “जब मेरी डॉक्यूमेंट्री को इफ्फी के लिए चुना गया था, तो सभी ने मेरे काम के लिए मेरी प्रशंसा की और यहां तक ​​कि मेरी पत्नी ने भी अब मुझे स्वीकार कर लिया है। तो, एक तरह से इफ्फी ने मुझे मेरी पत्नी के साथ फिर से मिला दिया है और मेरी यात्रा यहां एक वृत्त पूरा करती है।”

उन्होंने कहा कि अंत में सब कुछ जुड़ा हुआ है और ऑन-स्क्रीन व ऑफ-स्क्रीन दोनों जगह मेरी कहानी ने आखिरकार अपना रास्ता पूरा कर लिया है। ये मेरी अपनी यात्रा का पर्याय बन गई है।

अपनी जड़ों से फ़िल्म का संबंध बताते हुए निर्देशक ने कहा: "मैं हमेशा अपने गृहनगर - प्रयागराज के बारे में एक कहानी कहना चाहता था; हर कोई 'कुंभ' पर फ़िल्म बनाता है लेकिन मैं कुछ अलग करना चाहता था।"

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