उप राष्ट्रपति सचिवालय
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गोपीचंद पी. हिंदुजा द्वारा संकलित पुस्तक 'आई एम?' के विमोचन के अवसर पर उपराष्ट्रपति के संबोधन का मूलपाठ (अंश)

Posted On: 08 FEB 2025 2:29PM by PIB Delhi

आप सभी को सुप्रभात,

देवियों और सज्जनों, मैंने चार दशक से अधिक समय तक सार्वजनिक जीवन जिया है। मुझे ऐसा कोई अवसर नहीं मिला जो इसके निकट भी रहा हो। यह वास्तव में अत्यंत विलक्षण क्षण है। श्री गोपीचंद पी. हिंदुजा द्वारा संकलित विचारशील और विचारोत्तेजक पुस्तक 'आई एम?' का विमोचन। उन्होंने पिछले पखवाड़े 29 जनवरी को अपना 84वां जन्मदिन मनाया।

मुझे उन्हें फोन करने, उनका अभिवादन करने, उनकी सेहत और उनका कुशलक्षेम पूछने तथा उनके खुशहाल, स्वस्थ और रचनात्मकता से भरपूर लंबे जीवन की कामना करने का सौभाग्य मिला।

मित्रों, प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक के उद्गम स्थल तथा वैश्विक आध्यात्मिक केंद्र, सनातन की भूमि- भारत में यह विमोचन होना बेहद महत्‍वपूर्ण है।

जब हम शीर्षक पर सरसरी तौर पर गौर करते हैं, जैसा कि हम अक्सर करते हैं, तथा जिसे अक्सर टाला भी जा सकता है, तो शीर्षक दिलचस्प है। मैं अपनी टिप्पणी के समर्थन में कहना चाहूंगा कि ब्रिटेन के सम्राट चार्ल्स तृतीय ने इन आलेखों को मान्‍यता दी।

आस्था, सहिष्णुता और इच्छा मंत्री शेख नाहयान बिन मुबारक अल नाहयान ने इसकी प्रशंसा की है। मुझे पूरा विश्वास है कि जिज्ञासु प्रवृत्ति वालों के लिए ये आलेख उत्‍सव के समान साबित होंगे। आध्यात्मिक रूप से प्रेरित महत्‍वाकांक्षियों के लिए यह एक मार्गदर्शक साबित होंगे। और जहां तक पाठक का प्रश्‍न है, तो उसे विश्व के समस्‍त धर्मों द्वारा साझा किए जाने वाले शाश्वत सत्य को गहराई से खोजने का अवसर मिलेगा।

मैं जी.पी.-जिस तरह वह अपने दोस्तों के बीच जाने जाते हैं, - की सराहना करता हूं। मैं इस दूरदर्शितापूर्ण उत्‍कृष्‍ट कृति के लिए नवागत होने का दावा कर सकता हूं, जो सभ्यता के शाश्वत सत्यों का संश्‍लेषण करती है, यह बताती है कि आध्यात्मिक उत्‍कर्ष की खोज में सभी पहले कैसे चर्चा करते हैं, जिसे याद रखने की आवश्यकता वाले अवसरों पर सभी द्वारा आसानी से भुला दिया जाता है। हम सनातन के सार को मूर्त रूप देते हुए काम करते हैं, और सामान्य अंतर-धार्मिक वार्तालापों से अलग हटकर कार्य करते हैं, जिसमें श्रेष्ठता की भावना निहित होती है।

सम्मानित श्रोतागण, मैं श्रेष्ठता शब्द का प्रयोग केवल अपनी प्रतिक्रिया को संयमित करने के लिए ही कर रहा हूं। अन्यथा, कई अवसरों पर अंतर-धार्मिक विमर्श में भी वही व्यवधान और हंगामा देखने को मिलता है, जो मुझे लोकतंत्र के मंदिर में देखने को मिलता है।

मित्रों, 'आई एम?' ये गहरे शब्द दोराहे को चिह्नित करते हैं, जो या तो सामूहिक सद्भाव में विलीन हो जाते हैं, जो कि हितकारी है, या अहंकार की कैद में कठोर हो जाते हैं, जो कि अक्सर सत्ता का आनंद लेने वाले लोगों के साथ होता है। इस मूलभूत पहलू की अनदेखी करते हुए कि शक्ति प्रयोग में नहीं, बल्कि सीमाओं में निहित है।

बल प्रयोग शक्ति के प्रयोग का सबसे खराब स्‍वरूप है, लेकिन फिर इस पुस्तक से एक अन्‍य पहलू भी प्रकट हो रहा है। आत्म-चिंतन से अहम् खिलता है, फलता-फूलता है और घमंड से यह मुरझा जाता है, यह धारक की दर्दनाक अप्रासंगिकता में चला जाता है। वास्‍तविक शक्ति का उदय होता है, दोस्तों, यहां मैं का आशय मेरे लिए नहीं है ।

यदि हम कहें आईएम विद् यू (या मैं तुम्हारे साथ हूं), तो- संकट से घिरे किसी व्यक्ति की कल्पना कीजिए, और कोई ऐसा व्‍यक्ति जिसका वह सम्‍मान करता है या करती है, वह संकट से घिरे उस व्‍यक्ति से कहता है, मैं तुम्हारे साथ हूं। क्या कोई इससे बड़ा प्रेरक, प्रेरणादायक हो सकता है? और अगर वह व्यक्ति आईएम (या मैं) हमारे लिए हूं से आगे बढ़ जाता है, तो यह स्‍पाइनल लीडरशिप के गुण का प्रतीक है। चेतना को ऊपर उठाते हुए वसुधैव कुटुम्बकम की ओर ले जाना, जहां व्यक्तिगत पहचान सार्वभौमिक संबंध में बदल जाती है, यह एक ऐसा संदेश है, जिसे भारत ने अपने जी-20 आदर्श वाक्य, 'एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य' के साथ वैश्विक बिरादरी को दिया।

दोस्तों, वास्तव में यह इस देश में हजारों वर्षों के सभ्यतागत लोकाचार और सार की पुनरावृत्ति थी, जो हमेशा से जमीनी हकीकत रही है। दुनिया को अक्सर सभ्यताओं के टकराव के रूप में वर्णित किया जाता है। यह पुस्तक एकता पर ध्यान केंद्रित करते हुए सभ्यताओं के अभिसरण को शांतिप्रद और उचित रूप से प्रस्तुत करती है, जबकि अन्य विभाजन की तलाश करते हैं।

यह समावेशिता के शाश्वत सभ्यतागत सार को दर्शाती है, जो कि भारत है। मैं ऋग्वेद का उद्धरण देना चाहता हूं, आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः सभी दिशाओं से श्रेष्ठ विचारों को प्रवाहित होने दो।

चूंकि मैं राजनयिकों की उपस्थिति देख रहा हूं, बिस्मार्क ने यह कहा था कि परिवर्तन की हवाएं बहती हैं, लेकिन मेरे आदेश पर अत्यंत विवशता के साथ,- इस कथन में इतनी उदारता नहीं है, जितनी ऋग्वेद में परिलक्षित होती है। सभी दिशाओं से श्रेष्ठ विचारों को प्रवाहित होने दो। केवल परिवर्तन ही क्यों? यह पुस्तक पाठकों को ज्ञान का प्रबुद्ध अमृत प्रदान करती है, जो हमेशा ज्ञान से परे होता है।

आईएम की प्रासंगिकता को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताया जा सकता। यह समकालीन रूप से बहुत प्रासंगिक है। हम ऐसे युग में जी रहे हैं जहां समाज धारणाओं से खंडित है, समानताओं पर जोर देने के बजाय मतभेदों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है।

यह पुस्तक, खतरनाक रूप से चिंताजनक टकरावयुक्‍त वैश्विक परिदृश्य से स्‍पष्‍ट रूप से भिन्‍न है और यहां मौजूद लोग इसकी गंभीरता और भयावहता को मुझसे ज़्यादा जानते हैं। यह पुस्तक, खतरनाक रूप से चिंताजनक टकरावयुक्‍त वैश्विक परिदृश्य से स्‍पष्‍ट रूप से भिन्‍न होने के बावजूद पूज्य स्वामीजी द्वारा बताए सहिष्णुता, मिलजुल कर काम करने, सद्भाव, सह-अस्तित्व, पारस्परिक सम्मान, साझा मानवीय मूल्यों तथा सभी धर्मों को जोड़ने वाली उत्कृष्टता और आध्यात्मिकता की समानता को मान्यता देने का प्रमाण है।

यह पुस्तक पाठक को शांतिपूर्ण, उद्देश्यपूर्ण, स्थायी सह-अस्तित्व की भावना को पोषित करने की सीख देती है, जो अब विकल्प भर नहीं रह गया है। यदि हमें इस ग्रह पर अपना अस्तित्‍व बचाना है, तो यही एकमात्र तरीका है और हम सभी इस समस्या की भयावहता और पराकाष्‍ठा से पूरी तरह परिचित हैं और इस तथ्य से भी अवगत हैं कि सह-अस्तित्व के लिए धरती माता के अलावा कोई अन्य ग्रह उपलब्ध नहीं है।

मित्रों, इस पुस्तक के मूल में आश्चर्य है, हमारे रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं और वे होंगे भी। अलग-अलग दृष्टिकोण होंगे। ऐसे अवसर होंगे, जब दूसरा दृष्टिकोण सही हो सकता है। मेरा अपना अनुभव है कि अक्सर यह सही होता है। हमें अभिव्यक्ति और संवाद को पूरी तरह से अपनाना होगा।

अगर अभिव्यक्ति से समझौता किया जाए, उसे दबाया जाए या नियंत्रित किया जाए, तो लोकतंत्र के कोई मायने नहीं हैं, इसमें कुछ भी सुखद नहीं है और अगर संवाद न हो तो अभिव्यक्ति का कोई आयाम नहीं है। अगर इस तरह की अभिव्यक्ति है- यह मेरा तरीका है, मैं आलोचनात्‍मक हूं, मैं सही हूं, आप कभी सही नहीं हो सकते, मैं कभी भी आपकी बात पर विचार नहीं करूंगा, तो ऐसे में संवाद का कोई अर्थ नहीं है।

इस प्रकार अभिव्यक्ति और संवाद एक ही सिक्‍के के दो पहलु हैं, जो लोकतंत्र को परिभाषित करते हैं। और दोस्तों, एक तरह से यह पुस्तक न केवल इसका समर्थन करती है, बल्कि वैदिक ज्ञान के अंतिम लक्ष्य की ओर इंगित करती है। ज्ञान परम वास्तविकता या सभी रचनाओं की एकता की प्राप्ति में समाहित है।

कल्‍पना कीजिए, सिर्फ मनुष्य, जीव-जंतु तक ही क्यों सीमित रहें? सृष्टि का स्रोत एक है। पर्यावास एक है और देखिए आज हम कहां आ पहुंचे हैं। विविधतापूर्ण और उभरते भारत के लिए यह पुस्तक अधिक प्रासंगिक और आशाजनक है। राष्ट्र की स्थिति पहले से कहीं अधिक उत्साहजनक है और आशा और संभावनाएं सर्वव्यापी हैं।

मित्रों, हाल के वर्षों में कोई भी राष्ट्र सभी स्तरों पर, उन लोगों के स्तर पर जो कभी रडार पर नहीं थे, जो अंतिम सिरे पर थे, अपरिमित आर्थिक उत्थान, बुनियादी ढांचे का अभूतपूर्व विकास, व्यापक तकनीकी और डिजिटल पहुंच और अनुकूलन का साक्षी नहीं बना है। राष्ट्र अब संभावनाओं वाला राष्ट्र मात्र नहीं रहा है, जैसा कि इसे कहा जाता था। विकसित भारत अब सपना नहीं है। अब यह निश्चित और प्राप्त करने योग्य लक्ष्य है।

सभी अभिलाषाओं और उद्देश्यों को यदि पहले नहीं, तो उस समय तक हासिल किया जाएगा जब भारत 2047 में अपनी स्वतंत्रता की शताब्दी मनाएगा। लेकिन दोस्तों, यह हितकारी परिदृश्य अब उन ताकतों का सामना कर रहा है जो जाति, वर्ग, पंथ, रंग, संस्कृति और भोजन के कृत्रिम विभाजन का फायदा उठाने और उसे घातक रूप से बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं। मेरे स्तर पर यह बहुत पीड़ादायक है कि पक्षपातपूर्ण हितों, संकीर्ण हितों से बंधे इस तरह के दृष्टिकोण में निहित खतरों की गहरी समझ रखने वाले लोग इन हानिकारक प्रवृत्तियों का समर्थन करने के लिए सार्वजनिक मंचों पर आते हैं।

मुझे इस संबंध में कोई संदेह नहीं है, और यह पुस्तक से प्रकट होता है, आस्‍था में विश्वास स्वैच्छिक है। यह अंत:करण की पुकार होनी चाहिए। सिद्धांत या हेरफेर द्वारा उत्पन्न आस्था दयनीय शोषण है। मानव शोषण का सबसे बुरा रूप है। यदि यह लालच, प्रलोभन, सशक्तीकरण के माध्यम से है – तो मेरे पास इसके लिए कोई शब्द नहीं है, मैं खुद को रोक रहा हूं - यह गुप्त उद्देश्य है। कल्‍पना कीजिए, कि यदि उद्देश्य वर्चस्व, दूसरों पर प्रधानता हासिल करना है, जनसांख्यिकीय कौशल द्वारा दूसरों को आधिपत्य के अधीन करना है, तो यह चिंता बहुत बड़ी है। दोस्तों, यह चिंता इस समय दुनिया के अधिकांश देशों के सामने स्‍पष्‍ट रूप से मौजूद है।

यह पुस्तक सही समय पर आई है। यह पुस्तक ऐसे गुमराह लोगों के लिए मार्गदर्शन की किरण है, लेकिन हमारे लिए, सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए, जैसा कि मैंने कहा, जहां दुनिया का हर छठा इंसान रहता है, जहां समावेशिता का शानदार ऐतिहासिक रिकॉर्ड है, यहां तक कि भारत के विचार के प्रति भी रणनीतिक रूप से , शत्रुतापूर्ण रुख वाली भयावह ताकतें सुनियोजित राष्ट्र-विरोधी धारणाओं, नॉन-ऑर्गेनिक रूप से बनायी गई जनसांख्यिकीय विविधताओं, लाखों की संख्या में अवैध प्रवासियों की आमद और फुसला कर किए धर्मांतरणों आदि के जरिए दुर्भाग्यवश रूप से जगह बना रही हैं।

मित्रों, पुस्तक से प्रकट दर्शन और भारत द्वारा 5,000 वर्षों से अधिक समय से अपनाए गए दर्शन के लिए संभावित अस्तित्वगत चुनौतियां हैं। ऐसे परिदृश्य में, भारत की अनवरत विकास यात्रा सुनिश्चित करने और सर्वोत्कृष्टता के सार से प्रेरणा लेने के लिए, इस तरह के क्रूर विभाजनकारी दुस्साहस को बेअसर करना हमारा परम आध्यात्मिक दायित्‍व है। भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत केवल हमारी ताकत और एकता का आधार ही नहीं है, बल्कि यह विश्व स्थिरता, सद्भाव और शांति के लिए भी है।

इसे अभेद्य बनाने के लिए हम सभी को सामंजस्‍यपूर्ण रूप से, एकजुट होकर काम करना होगा। मित्रों, यह पुस्तक भारतीयता की सार्वभौमिक प्रासंगिकता, सद्गुणता को रेखांकित करती है, जो सभी धर्मों में प्रत्‍यक्ष है। यह पुस्तक उपदेशकों और धर्म का पालन करने वालों, दोनों को याद दिलाती है कि हम धर्मांतरण के प्रलोभन के बिना दूसरों की वास्‍तविकता का सम्मान और सराहना कर सकते हैं।

एकता का अर्थ है असमानता (नॉन यूनिफॉर्मिटी)। भारती इसका आदर्श उदाहरण है, यह मानव व्यवहार के सभी पहलुओं में एकता और विविधता का उदाहरण प्रस्‍तुत करती है। सहिष्णुता का अर्थ दूसरों पर विजय प्राप्त करना नहीं है। व्यवधान को संवाद में बदलना चाहिए, अशांति को विचार-विमर्श में बदलना चाहिए। संघर्ष को चेतना में बदलना चाहिए। हम दुनिया में सख्‍त, कठोर कदमों को उठाया जाना देखते हैं। हमारे ऋषियों ने कहा है कि अपरिवर्तनीय टकराव वाला रुख सभी धर्मों के सार के विपरीत है और इसमें अनपयुक्‍त आत्‍मसंतुष्‍ट और आलोचनात्‍मक दृष्टिकोण निहित है।

यह सभी फॉल्‍ट लाइन्‍स को पार करते हुए रेड एरिया में दाखिल हो रहा है। हमें इन सिद्धांतों को अपनाना होगा । सहिष्णुता, सह-अस्तित्व, संवाद, आम सहमति, क्योंकि ये समाज को उन कष्टों से मुक्त करेंगे जिनका मैंने उल्लेख किया है।

मित्रों, लेखक जिस दर्शन से परिचित हैं, वह हिंदुजा ग्रुप के विजन में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जो मल्‍टी-सेक्‍टर पावरहाउस होने से परे समावेशिता, स्थिरता और सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देता है। हिंदुजा ग्रुप का योगदान पारंपरिक सीएसआर से बढ़कर है। ईरान में गुरुद्वारे और श्मशान का निर्माण पहचान को संरक्षित रखने की असाधारण प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

हाल ही में मैं नई दिल्ली में भारतीय विद्या भवन में नंदलाल न्यूऑल सेंटर ऑफ इंडोलॉजी के भूमि पूजन समारोह में सम्मिलित हुआ था और वहां मुझे यह जानकर खुशी हुई कि हिंदुजा ग्रुप ने न्यूयॉर्क में भारतीय विद्या भवन की पहली विदेशी शाखा स्थापित की है।

यह ग्रुप कोलंबिया यूनिवर्सिटी में धर्म हिंदुजा इंडिक रिसर्च सेंटर के माध्यम से वैश्विक स्तर पर हमारी सभ्यता की कहानी को पुनः प्राप्त करते हुए पूर्व-पश्चिम की खाई को पाटता है।

मैं इस उल्लेखनीय संकलन के लिए श्री गोपीचंद पी हिंदुजा और इसके विमोचन को संभव बनाने के लिए श्री अशोक हिंदुजा की सराहना करता हूं। मैं सभी से प्रार्थना करता हूं कि पुस्तक में जो संदेश है, वह आध्यात्मिक साधकों, विचारकों, सक्रिय नागरिकों और सभी को प्रभावित करे।

जय हिंद

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