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भारतीय विद्या भवन, नई दिल्ली में नंदलाल नुवाल भारत विद्या केंद्र के शिलान्यास समारोह में उपराष्ट्रपति के संबोधन का मूल पाठ (अंश)

Posted On: 20 JAN 2025 1:12PM by PIB Delhi

परम आदरणीय श्री बनवारीलाल पुरोहित जी, मैं समझता हूं, नाम ही काफी है। 80 की उम्र में भी शेर किसी युवा की तरह दहाड़ रहा है।

अपनी कई तरह की सीमाएं हो सकती हैं, लेकिन मैं उनकी भावनाओं को आशीर्वाद के रूप में लेता हूं। इससे मुझे राष्ट्र और उसकी संस्कृति को हमेशा ध्यान में रखते हुए अपनी गतिविधि में लगे रहने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा, प्रेरणा मिलेगी।

समर्पण, प्रतिबद्धता और निःस्वार्थ सेवा के लिहाज से कई संस्थाओं से उनका उल्लेखनीय जुड़ाव है। भारतीय विद्या भवन जैसी संस्थाओं में आना मेरा सौभाग्य है। नागपुर में ऐसी संस्थाओं की सफलता की गाथा से मैं अभिभूत हूं। मेरे मन में कोई शंका नहीं है, बहुत ही कम समय में यह शानदार भवन बनकर तैयार हो जाएगा। यह भी उल्लेखनीय है कि यह भवन भारतीय विद्या भवन की प्रकृति के अनुरूप है।

आपकी मुस्कराहट के पीछे लौह पुरुष के प्रयत्न हैं। आपने जो आज बात कही है, सोमनाथ मंदिर के बारे में जो ऐतिहासिक विवरण दिया है, वह आज के दिन हर भारतीय को याद रखना होगा। यह हर भारतीय के दिल को छू गया है। एक वह कालखंड था, जहां राष्ट्रपति को ऐसा निर्देश दिया गया, जिसका हमारी संस्कृति में कोई स्थान नहीं। सेक्यूलर शब्द की व्याख्या करने के लिए भारत विद्या (इंडोलॉजी) में गोता लगाना पड़ता है। इसके लिए विदेशी पढ़ाई काम नहीं आती। ऐसा नेक काम इस प्रांगण में हो रहा है। यह आप और हम सबके लिए बहुत अच्छा है, क्योंकि यह दिल्ली में हो रहा है और इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता दिल्ली में है। उन लोगों के लिए है, जो ज्यादा दिल्ली में वास करते हैं शासन-प्रशासन के ऊपर उनका कड़ा प्रभाव है।

सम्मानित अतिथियों, मैंने अपने जीवन में कभी नहीं सोचा था कि मुझे भारतीय विद्या भवन से जुड़ी एक ऐसी संस्था की आधारशिला रखने का इतना सम्मान मिलेगा जिसका संबंध भारत विद्या (इंडोलॉजी) से है। नंदलाल नुवाल भारत विद्या केंद्र हमें बहुत आगे ले जाएगा।

भारतीय विद्या भवन और इसके दूरदर्शी संस्थापक डॉ. के.एम. मुंशी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए यह एक उपयुक्त अवसर है और पुरोहित जी को इसकी पहले से ही प्रतीक्षा थी। भारतीय संस्कृति और ज्ञान प्रणालियों को संरक्षित करने और बढ़ावा देने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। यह आसान नहीं था, लोग पश्चिमी विचारों से प्रभावित थे। विदेशी शिक्षा को ज्ञान और बुद्धि का पर्याय माना जाता था, हमारे आसपास गलत सोच वाले व्यक्ति थे। उस माहौल में, उन्होंने एक ऐसी विचार प्रक्रिया की कल्पना की जो अब अंतरराष्ट्रीय महत्व की एक संस्था के रूप में विकसित हो चुकी है।

समकालीन परिदृश्य की कल्पना करें तो 1938 में इसकी तुलना में विपरीत परिस्थितियां और कठिन परिस्थितियां थीं, तब यह पहल की गई थी। वास्तव में यह संस्थान शिक्षा, संस्कृति और कला के क्षेत्र में अग्रणी और प्रकाश स्तंभ के रूप में रहा है जैसा कि उस महान व्यक्ति और उनके सहयोगियों ने कल्पना की थी। एक राजनेता, लेखक और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में डॉ. मुंशी जी ने भारत की अद्वितीय विरासत और संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए खुद को समर्पित कर दिया। सोमनाथ इसका एक विशिष्ट उदाहरण है।

उन्होंने विरासत की रक्षा करते हुए भारतीय परंपराओं को आधुनिकता के साथ अनोखे ढंग से समाहित किया जबकि शासन में अन्य लोग पश्चिमी विचारधाराओं के पक्ष में थे। मुझे विश्वास है कि उस समय भारतीय प्रधानमंत्री को अवश्य डॉ. मुंशी जी की प्रतिबद्धता का भान हुआ होगा जब भारत के तत्कालीन प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की सोमनाथ मंदिर में उपस्थिति से उनकी विचार प्रक्रिया की पुष्टि हुई थी।

शास्त्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने, प्राचीन ग्रंथों को प्रकाशित करने और भारत की विरासत में एकता की भावना को प्रोत्साहन देने में भारतीय विद्या भवन के प्रयास, भारत विद्या की भावना को पोषित करने तथा उसे जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

मित्रों और सम्मानित श्रोतागण, अब समय आ गया है कि हम अपनी विरासत को समृद्ध बनाएं और सुनिश्चित करें कि यह फले-फूले। इसके लिए इससे अधिक उपयुक्त समय नहीं हो सकता।

सम्मानित श्रोताओं, यह दिन नंदलाल नुवाल भारत विद्या केंद्र की आधारशिला रखने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। एक तरह से, यह उस गहन बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत को फिर से तलाशने, पुनःस्थापित करने और पुनर्जीवित करने की उस परिवर्तनकारी यात्रा का बीजारोपण है जिसने सहस्राब्दियों से भारत को परिभाषित किया है। हम 5 हज़ार से अधिक वर्षों से एक ऐसे तंत्र पर काम कर रहे हैं जिसे दुनिया अब मान्यता दे रही है। हमें इसके बारे में जानना चाहिए। लाखों लोग इस तरह की पहल का समादर करते हैं और उस पर गर्व करते हैं, वहीं एक छोटा-सा वर्ग ऐसा भी है जो इसका विरोध और अनादर करना चाहता है।

हमारी संस्कृति और इसकी विरासत के प्रति हमारा जुनून हमें हमेशा इस मिशन और उत्साह से परिपूर्ण रहना चाहिए कि हम केवल भारत में पायी जाने वाली इस अनूठी संपदा को निरंतर पोषित करें। मित्रों, कुछ विरोध के बावजूद यह केंद्र भारत की सहस्राब्दियों की विरासत के पुनः संधान के लिए परिवर्तन का अग्रदूत है। जब कोई सभ्यता स्वदेशी भूमि के माध्यम से अपनी जड़ों को फिर से खोजती है, तो वह न केवल जीवित रहती है, बल्कि दुनिया के भविष्य को भी आलोकित करती है।

एक राष्ट्र के रूप में विश्व शांति और सद्भाव में योगदान देना हमारी नियति में हैं। यह राष्ट्र वसुधैव कुटुम्बकम में निहित सभी की भलाई की भावना को आगे बढ़ाने के लिए विलक्षण तरीके से खड़ा है। यह भूमिपूजन समारोह ग्रंथों और परंपराओं में ज्ञान को संरक्षित करने के हमारे संकल्प और हमारे सर्वोच्च दृढ़निश्चय को दर्शाता है।

भारत विद्या कालातीत ज्ञान का विस्तार है, जिसका गहरा अर्थ समकालीन स्तर पर भी प्रासंगिकता रखता है। इस पर विचार करने में मुझे घंटों लग जाएंगे। आज हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश का समाधान हो जाएगा, और भारत विद्या के सहारे समाधान तेजी से होगा।

इससे हमारे अस्तित्व और पर्यावरण से जुड़े एकमात्र खतरे पर विचार किया जा सकता है जो नैतिकता से जुड़ा है। शासन और मानकों में गिरावट को देखिए, इसे जन-केन्द्रित होना चाहिए। स्वास्थ्य को सार्वभौमिक होना चाहिए, और यह हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण जुड़े मौलिक प्रश्नों पर भी विचार करना होगा क्योंकि हमारे पास रहने के लिए कोई दूसरा ग्रह नहीं है।

सम्मानित श्रोतागण, यह हमारे लिए बहुत ही हितकर है कि भारत अब उदंतपुरी, तक्षशिला, विक्रमशिला, सोमपुरा, नालंदा, वल्लभी सहित बहुत-से अन्य स्थानों से अपनी खोयी हुई शान वापस पाने की राह पर है। अब समय आ गया है कि हम अपने विचारों पर फिर से सोचें और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए खुद को फिर से समर्पित करें। आइए हम अपने देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे संस्थानों की स्थापना करके उस आभा को और आलोकित करें। यह केंद्र उसी दिशा में एक कदम है।

मैं अपने युवाओं से विनती करता हूं कि वे भारत के गणितीय योगदान, शून्य, बीजगणित, ज्यामिति और त्रिकोणमिति पर गर्व करें। जब हम अपनी संपदा, सोने की खान, चरक संहिता और सुश्रुत संहिता से प्रेरित समग्र स्वास्थ्य सेवा और टिकाऊ जीवन पद्धति पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि हमारा अथर्ववेद हमारी स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के मामले में विश्वकोश है। वेदांत, बौद्ध धर्म और जैन धर्म भारत की समावेशी दार्शनिक परंपराओं को प्रदर्शित करते हैं। यह कैसी स्थिति है!

अज्ञानी लोग अपने संकीर्ण दृष्टिकोण से हमें समावेशिता के बारे में जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि, वेदांत, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और अन्य दार्शनिक विचारधाराओं ने हमेशा संवाद और सह-अस्तित्व को प्रोत्साहित किया है। आज की ध्रुवीकृत दुनिया में ऐसे सिद्धांत बहुत ही मूल्यवान हैं। भारत विद्या हम सभी को उपनिवेशवाद से मुक्त करती है जैसा कि हमने देखा है। मैं उस व्यवस्था का हिस्सा था।

दंड विधान से न्याय विधान तक की यात्रा तय करने के बाद हमने औपनिवेशिक विरासत और मानसिकता से स्वयं को मुक्त कर लिया। यह छोटा-सा काम था, लेकिन इसका संदेश बड़ा था।

इस देश का बजट अब सुबह 11 बजे घोषित किया जाता है, जो कुछ अन्य लोगों के लिए उपयुक्त नहीं है। हमारे इतिहास का पहला मसौदा उपनिवेशवादियों के विकृत दृष्टिकोण से आया था। हजारों लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान दिया, उन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया था, लेकिन जब इतिहास लिखा गया, तो उसमें केवल कुछ लोगों को बढ़ावा देने के लिए विपर्यय और पूर्वाग्रह भरे थे। स्वतंत्रता के बाद इसे जड़ें जमाने की अनुमति दी गई।

सम्मानित श्रोतागण, आप जानते हैं कि दुनिया का कोई भी देश दूसरों के लिखे गए इतिहास और परंपराओं का अध्ययन और उनकी व्याख्या करके आगे नहीं बढ़ पाया है। मुझे यह स्वीकार करते हुए बहुत दुख हो रहा है कि हमारे इतिहास का पहला मसौदा उपनिवेशवादियों ने लिखा था, जिनके पास भारत के ग्रंथों और परंपराओं को देखने का बड़ा ही विकृत दृष्टिकोण था। उनका एक ही उद्देश्य था कि इतिहास में हमारे उन प्रतिष्ठित व्यक्तियों को उल्लेख से दूर रखा जाए जिन्होंने अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान दिया।

औपनिवेशिक शासन ने हमारी शिक्षा प्रणाली पर एक बाहरी ढांचा थोप दिया और इतना ही नहीं, उन्होंने स्वदेशी परंपराओं को अवैज्ञानिक और अप्रासंगिक बताकर तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दिया। यह उनकी मानसिक खामी और अदूरदर्शी सोच थी। वे हमारे ज्ञान-विज्ञान की गहराई और तर्कसंगतता की सराहना नहीं कर सके। इसने न केवल भारतीयों को बौद्धिक जड़ों से अलग कर दिया, बल्कि सहस्राब्दियों से पनप रही ज्ञान प्रणाली के जैविक विकास को भी बाधित कर दिया।

हजारों वर्षों की मेहनत, ज्ञान और बुद्धि के स्वर्णिम भंडार को दरकिनार कर दिया गया। हम आजादी के बाद इतिहास के उस दौर से गुजरे रहे हैं। यदि मैं ऐसा कहूं कि दुनिया की कोई भी सभ्यता इतनी तनावग्रस्त नहीं रही जिससे इतनी गंभीर विकृतियां पैदा हुईं, और ना ही मिथकों और सरासर झूठ और असत्य के अधीन नहीं रही जितनी हमारी सभ्यता रही है। यह त्रासदी अकल्पनीय अनुपात में है और बड़ी विडंबना है। भारत की सामूहिक चेतना के 5000 साल के विकास को पलटने का प्रयास किया गया। इस दृष्टि से ऐसे केंद्र अब सकारात्मक बदलाव के तंत्रिका केंद्र, और अधिकेंद्र बन जाएंगे।

स्वतंत्रता के उपरांत, राष्ट्रीय इतिहास के एक छोटे से दौर के बाद, हमें पुनः भारत के इतिहास के कुछ जानकार और इतिहासकार मिले, जिन्होंने इसके अतीत को पढ़ने और समझने के लिए यूरोपीय सामाजिक सिद्धांतकारों का इस्तेमाल किया। एक छात्र के रूप में, जब मैं इतिहास के पन्नों को पढ़ना चाहता था, तो मुझे एक लेखक मिला। बहुत देर हो चुकी थी, लेकिन मुझे पता था कि जो कुछ भी बताया जा रहा था, वह राष्ट्र के लिए अच्छा नहीं था, मेरे बौद्धिक विकास के लिए भी अच्छा नहीं था, लेकिन ऐसे लेखकों का सम्मान किया गया जिनका मैं नाम नहीं लेना चाहता। उन्हें सम्मानित किया गया, उनकी सराहना की गई, उनमें से कुछ को उनकी अकादमिक विशेषज्ञता के बजाय विचारों को बढ़ावा देने के लिए पदोन्नत किया गया। वे हमारी शास्त्रीय भाषाओं, संस्कृत, प्राकृत और नौ अन्य भाषाओं से बहुत दूर थे, जिनकी संख्या हमने अब तक 11 घोषित की है।

उनके कुटिल प्रयासों और नुकसानदेह योजना को पश्चिम से मिली सहायता से पंख मिल गए। सैन्य संस्थान ने भी ऐसे सिपाही तैयार किए जो हमारे लिए काम नहीं कर रहे थे और हमारा प्रतिनिधित्व करने का दावा कर रहे थे। वे केवल औपनिवेशिक श्रेष्ठता और औपनिवेशिक ढांचे को ही प्रस्तुत कर रहे थे, हमारे ज्ञान की जैविक, मौलिक और वास्तविक गहराई को महसूस नहीं करते थे। इसलिए, जब लोग कहते हैं कि गंगा में सांप हैं, तो मैं विश्वास करता हूँ।

सभ्यता को खुद को समझने के लिए स्वदेशी चश्मे की जरूरत होती है। जैसे एक बच्चे को मां के दूध की जरूरत होती है, उसी तरह हमें इतिहास को बाहर से हासिल करने के मूल पाप से खुद को मुक्त करने की जरूरत है। यह केंद्र ऐसा ही एक कदम है। उपनिवेशवाद से मुक्ति असल में तब शुरू होती है जब हम दूसरों की कहानी में फुटनोट बनना बंद कर देते हैं और अपने पुनर्जागरण के लेखक बन जाते हैं।

हमारी विरासत का पुनरुत्थान भगवद गीता और अर्थशास्त्र जैसे शास्त्रीय ग्रंथों को मुख्यधारा की शिक्षा में शामिल करने से शुरू होता है। क्यों नहीं? इन शास्त्रों, उनके वचनों और पाठ के महत्व की कल्पना करें। केवल पढ़ने और समझने से आपको जो ज्ञान प्राप्त होगा, वह आपको एक अलग ही उत्कृष्ट स्वरूप में ढाल देगा।

हमारी संस्कृति के पुनर्जागरण के लिए हमारी शास्त्रीय भाषाओं पर नए सिरे से ध्यान देने की आवश्यकता है और सौभाग्य से अब उनकी संख्या 11 हो गई है। शास्त्रीय भाषाओं को सरकारी मान्यता देना, आगे बढ़ने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।

भारत की प्राचीन भाषाओं और उसके साहित्य पर यह अतिरिक्त बल देने से न केवल भाषाओं को पुनर्जीवित किया जा सकेगा, बल्कि हमारे भीतर की सुप्त अवस्था भी पुनः जागृत होगी और हमारे अतीत के द्वार खुलेंगे। मुझे कोई संदेह नहीं है कि इस केंद्र का बुनियादी ढांचे जैसा होगा और जिस तरह के समर्पित मानव संसाधन इसके पास होंगे, वह असाधारण प्रभाव उत्पन्न करने का काम करेगा। उस दृष्टिकोण से यह एक महत्वपूर्ण अवसर है, यह एक नया मील का पत्थर है जिससे एक ऐसी इमारत का निर्माण होगा जिसका हम तीन दशकों से अधिक समय के बाद देश के समक्ष इंतजार कर रहे हैं और अब ऐसे हजारों लोग जुड़ सकते हैं जो 2022 में विकसित राष्ट्रीय शिक्षा नीति को आगे बढ़ा सकते हैं। यहां पर आपको भारतीय ज्ञान प्रणाली का एकीकरण मिलेगा और यह हमारे शैक्षिक परिदृश्य के लिए महत्वपूर्ण क्षण होगा।

सम्मानित श्रोताओं, इस क्षण को संजोने के लिए सरकारी ढांचे से परे आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता है। इसके लिए हमें सरकार पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान देने में सक्षम है। इसलिए मैं देश के युवाओं से आग्रह करता हूं कि वे अपनी विरासत को गर्व और उत्सुकता के साथ अपनाएं। उस पर गर्व करें क्योंकि दुनिया के बहुत कम देश हमारे जैसी सांस्कृतिक विरासत अपने पास होने का दावा कर सकते हैं।

शास्त्रीय भाषाएं सीखें, प्राचीन ग्रंथों का अन्वेषण करें, तथा इस ज्ञान को वैश्विक स्तर पर लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करें। हमारे युवा इस चुनौती को स्वीकार करने में पूरी तरह सक्षम हैं। एक बार जब वे शुरुआत करेंगे, तो भावनात्मक और अन्य रूप से पूरी तरह से इससे जुड़ जाएंगे।

आइए हम डिजिटल लाइब्रेरी बनाएं, ग्रंथों का अनुवाद करें और ऐसे मंच विकसित करें जहां पारंपरिक ज्ञान का आधुनिक विचारों के साथ मेल हो सके। वास्तव में, हर आधुनिक विचार को हमारे शास्त्रों में मौजूद विचार में भी पाया जा सकता है। याद रखें, मैं युवाओं को संबोधित कर रहा हूं। आप केवल इस विरासत के उत्तराधिकारी ही नहीं हैं, न केवल मशालवाहक हैं, बल्कि आपको इसलिए काम करना है कि यह और पोषित हो और फले-फूले।

मैं शोधकर्ताओं और शिक्षाविदों को प्रोत्साहित करता हूं कि वे अपने अध्ययन के लिए बहु-अनुशासनिक दृष्टिकोण अपनाएं। भारतीय ज्ञान की समृद्धि इसकी परस्पर संबद्धता में निहित है। एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य के ध्येय के आधार पर जी-20 ने यह स्थापित किया है कि हम अलग-थलग देश नहीं हैं और हम पूरी दुनिया को एक मानते हैं। भारतीय ज्ञान की समृद्धि परस्पर संबद्धता और सभी के कल्याण में निहित है। उदाहरण के लिए, योग। प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र में बहुत कम समय में एक स्पष्ट आह्वान किया और सबसे बड़ी संख्या में देशों ने इसे अपनाने के लिए हाथ मिलाया। अब यह दुनिया भर के लोगों की सहायता कर रहा है।

हमारा अर्थशास्त्र शासन, अर्थव्यवस्था और कूटनीति के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है जो आज भी प्रासंगिक है। अगर लोग शासन के बारे में जागरूक हैं, और सतर्क हैं, तो मेरा विश्वास करें, कामकाज का तंत्र इतना विकसित होगा कि सत्ता में बैठे लोग स्वतः ही प्रभावित होंगे। यह लोगों की जागरूकता ही है जो लोकतंत्र को उसका वास्तविक जीवन प्रदान करती है। लेकिन, अगर लोग जागरूक नहीं हैं और केवल शासित होने के लिए तैयार हैं, तो शासन अलग तरह का होगा। लेकिन आपको केवल तभी उस तरह का शासन मिलेगा जैसा आप चाहते हैं और जिसके आप हकदार हैं, जब आप हमारे प्राचीन तंत्र से पूरी तरह परिचित होंगे जिसमें बताया गया है कि शासन क्या है।

सम्मानित श्रोतागण, लोकतांत्रिक राजनीति विमर्श पर फलती-फूलती है, अभिव्यक्ति और विमर्श लोकतंत्र के मूल तत्व हैं। यदि आपके पास अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं है, तो आप लोकतंत्र में रहने का दावा नहीं कर सकते। लेकिन, आपकी अभिव्यक्ति तब तक अधूरी है जब तक आप संवाद में विश्वास नहीं करते। क्योंकि जब आप संवाद करते हैं, तो दूसरा दृष्टिकोण भी हो सकता है, जो आपकी पसंद का न हो लेकिन कभी-कभी, और मैं कहूंगा कि अधिकतर स्थितियों में, संवाद आपको समृद्ध करता है। संवाद आपको विनम्र होने का और आत्मनिर्णय से बचने का, किसी ऐसी अवधारणा पर विश्वास न करने का अवसर देता है कि केवल मैं ही सही हूं। ऐसी अवधारणा जिसके बारे में कोई व्यक्ति सोच सकता है कि केवल मैं ही सही हूं, इससे वह स्वयं को मानव समाज की उदात्तता और सार से दूर कर लेता है क्योंकि किसी को यह निर्णय लेने का अधिकार नहीं है कि केवल मैं ही सही हूं, उसका निर्णय जनता के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। इसलिए, मैं आग्रह करता हूं कि लोकतंत्र का महत्व विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करने में ही है।

सभ्यता के लिहाज से हम केवल उस प्रक्रिया के लिए समावेशी रहे हैं। संवाद का अभाव, और संवाद से मेरा मतलब है ऐसा संवाद जिसमें कोई डर-भय न हो, जिसमें स्वतंत्रता हो, जिसमें उपहास न हो, जिसमें विचार हो और जिसे तुरंत खारिज न किया जाए, ऐसा संवाद यदि नहीं हो रहा है तो यह कम से कम लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए मौत की घंटी ही होगी।

हमारी विचारधारा पर नज़र डालने से पता चलता है कि जब भी विवादित मुद्दों का समाधान करने की बात आती है तो संवाद और चर्चा की राह हमेशा से हमें पसंद रही है। मैं कहूंगा कि यही एकमात्र तरीका है, और इतिहास इसे सही साबित करेगा। कई बार संघर्ष हुए हैं, कई बार युद्ध हुए हैं, लेकिन अंततः समाधान संवाद के ज़रिए ही हुआ। संवाद का अभाव विनाशकारी हो सकता है, बहुत ख़तरनाक हो सकता है, अगर संवाद न हो तो समाज मुश्किल में पड़ सकता है।

यह अवधारणा हमारे शास्त्रों, वेदों, पुराणों और यहां तक ​​कि हमारे महाकाव्यों से भी उभर कर सामने आती है। रामायण, महाभारत और गीता, सभी में संवाद की प्रधानता का संकेत मिलता है। देश में हर व्यक्ति में राष्ट्रवाद के प्रति अटूट आस्था और राष्ट्र के लिए एकजुट होकर काम करने की भावना होनी चाहिए।

सम्मानित श्रोताओं, राष्ट्र के प्रति शत्रुतापूर्ण कुछ शक्तियां अराजकता, और पूर्ण अराजकता के तौर-तरीके बताती हैं। वे हमारे राष्ट्र को अस्थिर करने, इसके विकास को बाधित करने, इसकी संस्थाओं को कलंकित करने, इसके महान व्यक्तित्वों की छवि को धूमिल करने के लिए हर तरह से तैयार हैं। ऐसी शक्तियों को बेअसर करना चाहिए और नकारा जाना चाहिए और यह तभी किया जा सकता है जब विचारधारा की अवधारणा व्यापक रूप से फैले।

हम ऐसे समय में हैं जब हम अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष से अधिक पूरे हो चुके हैं और एक सौ वर्ष पूरे होने में 25 वर्ष यानी अंतिम चौथाई भाग में हैं। इस दृष्टि से, भारत विद्या का उत्कृष्ट सिद्धांत हमें 2047 में एक विकसित राष्ट्र के निर्माण की ओर ले जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए हमें जोश, उत्साह, जुनून और मिशन के तौर पर स्वयं को समर्पित करना होगा। मित्रों, मुझे कोई संदेह नहीं है कि संवाद, चर्चा और अभिव्यक्ति के इन सिद्धांतों को अपनाने से देश में राजनीतिक तापमान भी कम होगा, जो इस समय चिंताजनक स्तर पर है। लोकतंत्र में सभी स्तरों पर संवाद सुनिश्चित करने के लिए सभी संबंधित पक्षों की ओर से आगे आने की आवश्यकता है। स्वस्थ संवाद और विमर्श से हमेशा राष्ट्र का कल्याण ही होगा।

मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह केंद्र जल्द ही बनकर तैयार होगा और मुझे लगता है उम्मीद से पहले ही पूरी तरह कामकाज शुरु कर देगा। सा विद्या या विमुक्तये- ज्ञान वही है जो बंधनों से मुक्त करे। कुछ लोगों को दिक्कत क्या है यह बात समझ में नहीं आती। समय आ गया है कि जो रास्ता भूल गए हैं, बात उनके समझ में आ जाए। ज्ञान ही हमारा रक्षक है और भारत विद्या का प्रसार हमारे लिए बहुत सुखद अनुभव होगा, देश के लिए बहुत अच्छा रहेगा। हमारा सामूहिक संकल्प सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इस महान कार्य के लिए समीचीन है।

धन्यवाद।

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