जनजातीय कार्य मंत्रालय
एनसीएसटी द्वारा 27 और 28 नवंबर को जनजातीय अनुसंधान – अस्मिता, अस्तित्व एवं विकास विषयक दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन
Posted On:
28 NOV 2022 7:08PM by PIB Delhi
मुख्य बिंदुः
- एनसीएसटी द्वारा जनजातीय अनुसंधान – अस्मिता, अस्तित्व एवं विकास विषयक दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन
- जनजातीय समुदाय से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा व विचारों का आदान-प्रदान तथा इन मुद्दों के अभिनव समाधानों की पड़ताल
राष्ट्रीय अनुसूचित जनजातीय आयोग (एनसीएसटी) ने ‘जनजातीय अनुसंधान – अस्मिता, अस्तित्व एवं विकास ’ विषयक दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया था, जो आज सम्पन्न हो गई। कार्यशाला का उद्घाटन 27 नवंबर को नई दिल्ली स्थित विज्ञान भवन के प्लेनरी हॉल में किया गया। कार्यशाला में जनजातीय समुदाय से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा व विचारों का आदान-प्रदान तथा इन मुद्दों के अभिनव समाधानों की पड़ताल की गई।
उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि आईसीएसएसआर के अध्यक्ष श्री जतिन्दर के. बजाज और एनसीएसटी के अध्यक्ष श्री हर्ष चौहान, एनसीएसटी के सदस्य श्री अनन्ता नायक और एनसीएसटी, नई दिल्ली की सचिव श्रीमती अलका तिवारी सम्मिलित हुईं।
श्री जेके बजाज के सम्बोधन में ‘भारत के विकास’ और अगले 25 वर्षों में जनजातीय समुदाय केंद्रीय विषय थे। उन्होंने जनजातियों के मूलभूत मूल्यों, स्वतंत्रता संग्राम में जनजातीय महानायकों की भूमिका पर अनुसंधान पर जोर दिया तथा विश्वविद्यालयों का आह्वान किया कि वे जनजातीय समुदायों पर गहरे शोध के लिये आगे आयें।
अपने प्रमुख वक्तव्य में श्री हर्ष चौहान ने औपनिवेशिक काल में जनजातियों के बारे में विरूपित विमर्शों पर चर्चा की तथा अनुसूचित जनजातीय समुदायों के वंचित रहने के कारणों पर प्रकाश डाला। उन्होंने आग्रह किया कि छवि बनाम वास्तविकता के बीच के अंतराल को भरा जाना चाहिये। उन्होंने रेखांकित किया कि अनुसूचित जनजातियों पर शोध उनको मद्देनजर रखते हुये उन्हीं के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिये। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय बेहतर शोध और जनजातियों पर पूरी दस्तावेजी सामग्री तैयार करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
एनसीएसटी की सचिव श्रीमती अलका तिवारी ने झारखंड में अरकी प्रखंड, खूंटी (पूर्व में रांची जिले में) में प्रशासक के रूप में काम करने के दौरान अपने अनुभवों को साझा किया। उन्होंने बताया कि वहां उन्हें क्या-कुछ सीखने को मिला। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि संसाधनों के समुचित उपयोग के लिये योजना की जरूरत है। साथ में उन्होंने यह भी कहा कि अगर हम उन लोगों को नहीं समझेंगे जिनके लिये योजना बना रहे हैं, तो सब निरर्थक होगा।
कार्यशाला के पहले दिन अनुसूचित जनजातियों के अतीत से वर्तमान के संपर्क पर चर्चा की गई। इस दौरान जनजातीय शोध के विमर्श पर से औपनिवेशिक काल की छाया को मिटाने पर भी चर्चा की गई।
कार्यशाला में, वक्ताओं ने मौखिक परंपराओं की दस्तावेजी सामग्री बनाने की आवश्यकता पर बल दिया, ताकि जनजातीय इतिहास को दुरुस्त किया जा सके।
कार्यशाला के दूसरे दिन प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण को रोकने, मुसीबत में होने वाले विस्थापन को रोकने, बीपीएल के तहत आबादी में कुपोषण को कम करने, विकास प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी बढ़ाने और पारंपरिक विकास प्रणाली को संरक्षित करने जैसे अहम मुद्दों पर चर्चा की गई।
इसके अलावा कार्यशाला के दौरान मैदानी स्तर पर शोध और प्रभाव के विश्लेषण की आवश्यकता भी महसूस की गई, ताकि ज्ञान-आधारित फीडबैक तैयार हो सके।
चर्चा में जनजातीय शोध में उच्च शिक्षा संस्थानों की भूमिका प्रस्तुत की गई। साथ ही यह राय भी व्यक्त की गई कि ये संस्थान इस मामले में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं।
कार्यशाला में देशभर के प्रमुख विश्वविद्यालयों से लगभग 75 कुलपतियों, विश्वविद्यालयों के लगभग 450 प्रोफेसरों, एसोशियेट प्रोफेसरों, सहायक प्रोफेसरों और शोध छात्रों ने सम्मेलन में हिस्सा लिया। प्रसिद्ध समाज सेवी, टीआरआई के निदेशक और विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकारी भी कार्यशाला में उपस्थित हुये।
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