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फातिमा -53वें इफ्फी में प्रदर्शित मानव तस्करी पर आधारित एक शक्तिशाली वृत्तचित्र


"यह केवल फिल्म नहीं है, यह मेरी लड़ाई है, मेरा ख्‍वाब है": फातिमा खातून

"यह गहन सामाजिक समस्या को मानवीय रूप से प्रस्‍तुत करने का मेरा प्रयास है": निर्देशक सौरभ कांति दत्ता

मानव तस्करी की शिकार यौनकर्मियों के बचाव और पुनर्वास पर आधारित सौरभ कांति दत्ता की वृत्‍तचित्र फिल्‍म फातिमा को भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) के 53वें संस्करण में प्रदर्शित किया गया। यह वृत्‍तचित्र फिल्म इसी नाम की एक महिला फातिमा खातून के उतार-चढ़ाव भरे जीवन की दास्‍तान बयां करती है। 9 साल की उम्र में एक दलाल से ब्‍याही गई और 12 साल की उम्र में मां बनने वाली, बुलंद इरादों वाली फातिमा अब भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र के फोर्ब्सगंज के रेड-लाइट एरिया में तस्करी की गई लड़कियों को मुक्‍त कराने की जंग लड़ती हैं।

भावुक दिख रहीं फातिमा खातून ने "इफ्फी टेबल टॉक्स" सत्र में रुंधे गले से मीडियाकर्मियों और प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए छोटी सी उम्र में अपनों से मिले विश्वासघात की अपनी कहानी सुनाई। उन्होंने 1871 के आपराधिक जनजातीय अधिनियम के तहत अपराधी घोषित किए गए अपने खानाबदोश समुदाय में पीढि़यों से जारी वेश्यावृत्ति और लड़कियों की दलाली के खिलाफ लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए आंतरिक बल  खोजने के अपने प्रयास के बारे में बताया।  

फातिमा खातून ने कहा, "मैं भी असहाय होने, निराश होने और प्यार से वंचित होने के कारण आंसू बहाती हूं, लेकिन मुझे उन लड़कियों का मनोबल बनाए रखने के लिए अपने आंसुओं को पीना होगा, जिन्हें मैं बचाने की कोशिश कर रही हूं।" उन्‍होंने 2007 में रेड-लाइट एरिया से अपने बच निकलने तथा तस्करी की गई लड़कियों को मुक्‍त कराने के लिए निरंतर जारी अपनी लड़ाई के बारे में बताया।

 

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फातिमा ने कहा, "मेरी लड़ाई इस व्यवस्था तथा दलालों, परिवार के सदस्यों और भ्रष्ट अधिकारियों की गहन सांठ-गांठ के खिलाफ है, जो इस क्षेत्र में इस प्रथा को जीवित रखे हुए हैं।" उन्होंने कहा कि गैर-सरकारी संगठनों की मदद से माताओं को समझाने की अदम्‍य कोशिशों के कारण, उन माताओं ने ढाल बनकर अपनी बेटियों को ऐसे अमानवीय अपराध का शिकार बनने से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

फातिमा खातून ने कहा, “मुझे पुलिस और प्रशासन को सतर्क करना पड़ता है और अक्सर कई छापों के दौरान पहला वार मुझी पर होता है। फिर भी मुझे इस बात का संतोष है कि मैंने जिन लड़कियों को बचाया – उनमें से कुछ एचआईवी + रोगी हैं, तो कुछ कैंसर को शिकस्‍त देने के बाद अब सम्मानजनक जीवन जी रही हैं, अपनी पसंद के व्यवसायों में काम कर रही हैं और परिवारों की सहायता कर रही हैं"।

निर्देशक सौरभ कांति दत्ता ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान 1.5 साल जाया हो गए और लागत बढ़ गई, लेकिन उन्हें इस बात की खुशी है कि उनकी यह फिल्म इफ्फी जैसे मंच पर जगह बना सकी।

 सौरभ ने कहा, "मैंने इसमें अभिनेताओं को शामिल नहीं किया, क्योंकि यदि मैं ऐसा करता तो यह इच्‍छा के मुताबिक वृत्तचित्र नहीं रहता, बल्कि सच्ची घटनाओं पर आधारित नाटक बनकर रह जाता। उन्होंने कहा कि अदालतों या पुलिस स्टेशनों के विपरीत, कैमरे के सामने सत्ता के समीकरण अलग होते हैं और फातिमा ने कैमरे के सामने अपनी कहानी बयान करने का अनुकरणीय साहस दिखाया है। सौरभ ने कहा, " मुझे उस दुनिया की झलक दिखाने के लिए मैं फातिमा का आभारी हूं।"

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निर्देशक-अभिनेत्री की जोड़ी ने इस विषय के बारे में  विचार और सुराग देने के लिए अनेक गैर सरकारी संगठनों और मीडिया का आभार व्यक्त किया। फातिमा ने कहा, "मुझे इस बात का बहुत संतोष है कि मैंने कई लड़कियों को अपने जीवन के विकल्प चुनने में समर्थ बनाया है - और मीडिया की ओर से दी गई सहायता के लिए मैं उसका आभार प्रकट करती हूं। "

 सौरभ दत्ता ने आशा व्‍यक्‍त की कि कानूनी और राजनीतिक हलकों में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोग उनकी फिल्म देखेंगे और फातिमा जैसी कार्यर्ताओं के प्रयासों को मजबूती प्रदान  करेंगे।

वृत्तचित्र का नाम: फातिमा

निर्देशक: सौरभ कांति दत्ता

अवधि: 59 मिनट

पूरी टेबल टॉक यहां देखें:

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