उप राष्ट्रपति सचिवालय

संस्कृत शिक्षा को पुनः प्रचलित करने के लिए एक जन आंदोलन की आवश्यकता : उपराष्ट्रपति


संस्कृत हमारी अमूर्त विरासत है यह हमें भारत की आत्मा को समझने में मदद करता है: श्री नायडु

संस्कृत वह भाषा है जो हमें एक साथ जोड़ती है-उपराष्ट्रपति

प्रौद्योगिकी ने हमारी प्राचीन भाषाओं को संरक्षित और प्रचारित करने के नए अवसर खोले हैं: उपराष्ट्रपति

उपराष्ट्रपति ने बेंगलुरु में कर्नाटक संस्कृत विश्वविद्यालय के नौवें दीक्षांत समारोह और दशवार्षिक समारोह को संबोधित किया

उपराष्ट्रपति ने तीन प्रख्यात विद्वानों - आचार्य प्रद्युम्न, डॉ. वी.एस. इंदिराम्मा और विदवान उमाकांत भट को मानद डॉक्टोरल डिग्री प्रदान की

Posted On: 09 JUL 2022 6:09PM by PIB Delhi

उपराष्ट्रपति श्री एम. वेंकैया नायडु ने आज संस्कृत शिक्षा पुनः प्रचलित करने के लिए एक जन-आंदोलन की जरूरत बताई, जहां सभी हितधारकों को भारत के समृद्ध प्राचीन साहित्य और सांस्कृतिक विरासत की फिर से खोज करने में योगदान देना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘एक भाषा को केवल संवैधानिक प्रावधानों या सरकारी सहायता या संरक्षण द्वारा संरक्षित नहीं किया जा सकता है।’’
बेंगलुरु स्थित कर्नाटक संस्कृत विश्वविद्यालय के 9वें दीक्षांत समारोह और दशवार्षिक समारोह को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने आज कहा कि परिवारों, समुदायों और शैक्षणिक संस्थानों द्वारा अगर भाषा को महत्व दिया जाता है तो वह जीवित रहती है और प्रचारित होती है। तेजी से हो रहे तकनीकी बदलाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि प्रौद्योगिकी ने संस्कृत सहित हमारी प्राचीन भाषाओं को संरक्षित और प्रचारित करने के नए अवसर खोले हैं। उन्होंने कहा, ‘‘प्राचीन पांडुलिपियों, अभिलेखों और शिलालेखों का डिजिटलीकरण, वेदों के पाठ की रिकॉर्डिंग, प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के अर्थ और महत्व को उजागर करने वाली पुस्तकों का प्रकाशन संस्कृत ग्रंथों में निहित हमारी संस्कृति को संरक्षित करने के कुछ तरीके होंगे।’’

उपराष्ट्रपति ने संस्कृत को हमारे देश की अमूर्त विरासत बताते हुए कहा कि यह हमारे ज्ञान और साहित्यिक परंपराओं का स्रोत रहा है। उन्होंने जोर देकर कहा, “संस्कृत हमें भारत की आत्मा को समझने में मदद करता है। अगर किसी को भारत के वैश्विक दृष्टिकोण को समझना है तो उसे संस्कृत सीखनी होगी।’’ श्री नायडु ने आगे कहा कि भारतीय कवियों की साहित्यिक प्रतिभा की सराहना करने और हमारे महान देश की सभ्यतागत समृद्धि पर शोध करने के लिए संस्कृत का छात्र बनना पड़ेगा।
उपराष्ट्रपति ने रेखांकित किया कि संस्कृत का उपयोग केवल दार्शनिक और धार्मिक विषयों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आयुर्वेद, योग, कृषि, धातु विज्ञान, खगोल विज्ञान, राज्य शिल्प और नैतिकता जैसे विषयों की एक विस्तृत शृंखला पर संस्कृत में कई ग्रंथ हैं। जिनकी समकालीन प्रासंगिकता है। उन्होंने छात्रों से ज्ञान के इन क्षेत्रों का पता लगाने और हमारे प्राचीन ग्रंथों के नए पहलुओं की खोज करने के लिए कहा।
यह देखते हुए कि भारत कई भाषाओं वाला देश है, श्री नायडु ने कहा कि हम भाग्यशाली हैं कि हमें आदि काल से ही यह समृद्ध भाषाई विविधता मिली है। उन्होंने कहा कि हमारी प्राचीन भाषाओं और उनके साहित्य ने भारत को विश्व गुरुबनने का प्रतिष्ठित दर्जा प्राप्त करने में काफी योगदान दिया है। उन्होंने इन भाषाई खजाने को संरक्षित करने की आवश्यकता पर बल दिया। उपराष्ट्रपति ने इस बात पर प्रकाश डाला कि संस्कृत का हमारे सांस्कृतिक परिदृश्य में एक विशेष स्थान है क्योंकि अधिकांश भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति इसी से हुई है। उन्होंने जोर देकर कहा, ’’अगर हम संस्कृत सीखते हैं तो हम भारतीय लोकाचार और गहरे सांस्कृतिक संबंध की सराहना कर सकते हैं जो सभी भारतीयों को बांधता है। यही भाषा है जो हमें एक साथ जोड़ती है।’’

प्राचीन भाषाओं के संरक्षण में कर्नाटक संस्कृत विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका की प्रशंसा करते हुए उन्होंने विश्वविद्यालयों से प्राचीन ग्रंथों पर सक्रिय शोध में संलग्न होने और शोध परिणामों को समकालीन दुनिया के लिए प्रासंगिक बनाने का आग्रह किया। श्री नायडु ने सभी छह प्राचीन भारतीय भाषाओं तमिल, संस्कृत, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और ओड़िया के समृद्ध साहित्य को संरक्षित करने के प्रयासों की आवश्यकता बताई।
कर्नाटक को आदि शंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य, श्री माधवाचार्य और श्री बसवेश्वर जैसे महान संतों और विचारकों की भूमि बताते हुए श्री नायडु ने ज्ञान और बुद्धिमत्ता के अपने प्राचीन खजाने को संरक्षित करने के लिए राज्य की प्रशंसा की।

इस अवसर पर उपराष्ट्रपति ने तीन प्रख्यात विद्वानों, आचार्य प्रद्युम्न, डॉ. वी.एस. इंदिराम्मा और विदवान उमाकांत भट, को मानद डॉक्टरेट डिग्री से सम्मानित किया।
कर्नाटक के राज्यपाल और कर्नाटक संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री थावरचंद गहलोत कर्नाटक संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर के. ई. देवनाथन जी विश्वविद्यालय के शासी निकाय के सदस्य, शिक्षक, छात्र और उनके माता-पिता शामिल होने कार्यक्रम में शामिल हुए थे।

भाषण का पूरा पाठ निम्नलिखित है:

बहनों एवं भाइयों,
मुझे नौवें दीक्षांत समारोह के इस महत्वपूर्ण अवसर पर युवा स्नातकों, संकाय सदस्यों और संस्कृत के विद्वानों के साथ शामिल होने को लेकर प्रसन्नता हो रही है। मैं यह जानकर प्रसन्न हूं कि यह आयोजन शिक्षा के इस प्रतिष्ठित पीठ के दशवार्षिक समारोह के साथ हो रहा है। मैं छात्रों को उनकी शैक्षिक यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर पार करने के लिए बधाई देता हूं। मैं उनके माता-पिता को उन्हें सफल होने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए बधाई देता हूं और छात्रों के लिए अनुकूल अकादमिक वातावरण बनाने के लिए कुलपति और संकाय सदस्यों को अपनी ओर से धन्यवाद देता हूं।

प्रिय छात्रों,
आप सौभाग्यशाली हैं कि शिक्षा के लिए प्रसिद्ध राज्य में स्थित इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं।
आपकी शिक्षा कर्नाटक की तपोभूमि में हुई है। यह उन संतों और चिंतकों की भूमि है जिन्होंने मानवता को उदात्त दर्शन दिए। यह आदि शंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य, श्री माधवाचार्य और श्री बसवेश्वर की भूमि है। यह वह भूमि है जिसने ज्ञान और बुद्धिमत्ता के प्राचीन खजाने को संरक्षित किया है।
जहां आदि शंकराचार्य ने शृंगेरी में विद्या शारदा पीठ की स्थापना की। वहीं श्री रामानुजाचार्य ने कई वर्षों तक मेलकोट को अपने शिक्षण के केंद्र के रूप में चुना और होयसल वंश के राजा विष्णुवर्धन का मार्गदर्शन किया। श्री माधवाचार्य ने उडुपी में अपने दर्शन का प्रचार किया। श्री बसवेश्वर ने कर्नाटक के अनुभव मंतपा में अल्लामप्रभु, अक्कमहादेवी और अन्य लोगों के साथ अपने दर्शन की शिक्षा दी। आपको इस महान वंशावली के गौरवशाली उत्तराधिकारी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।


कर्नाटक में मुम्मदी कृष्णराज वोडेयार, नलवाड़ी कृष्णराज वोडेयार और अन्य जैसे मैसूर के राजाओं के संरक्षण में शास्त्र और संस्कृत सीखने का एक नया आयाम रहा है। मैसूर को दक्षिण काशी के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह शिक्षा की एक प्रसिद्ध पीठ थी। यह जानकर खुशी हो रही है कि कर्नाटक संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत सीखने की इस महान विरासत को जारी रखे हुए है।

प्रिय युवा मित्रों,
संस्कृत हमारे देश की एक अमूर्त विरासत है। सदियों से यह हमारे ज्ञान और साहित्यिक परंपराओं का स्रोत रहा है। यहां तक कि यूनेस्को ने भी संस्कृत में वेद पाठ को एक अमूर्त विरासत के रूप में मान्यता दी है।
संस्कृत हमें भारत की आत्मा को समझने में मदद करती है। भारत के वैश्विक दृष्टिकोण को समझना है तो संस्कृत भाषा सीखनी होगी। भारतीय कवियों की साहित्यिक प्रतिभा की सराहना करने के लिए संस्कृत से अवश्य परिचित होना चाहिए। अगर किसी को हमारे महान देश की सभ्यतागत समृद्धि पर शोध करना है, तो उसे संस्कृत का छात्र बनना होगा।
संस्कृत को देव भाषाके रूप में जाना जाता है क्योंकि हमारे अधिकांश ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हैं। हालांकि आरंभ में बौद्ध और जैन शास्त्र प्राकृत में लिखे गए थे, बाद की शताब्दियों में अधिकांश बौद्ध और जैन भाष्य और साहित्य संस्कृत में लिखे गए। संस्कृत का उपयोग केवल आध्यात्मिक और दार्शनिक विषयों और पुराणों और महाकाव्यों जैसे धार्मिक ग्रंथों तक ही सीमित नहीं था। आयुर्वेद, योग, कृषि, धातु विज्ञान, खगोल विज्ञान, राज्य शिल्प और नैतिकता जैसे विषयों की एक विस्तृत शृंखला पर संस्कृत में कई ग्रंथ हैं, जिनकी समकालीन प्रासंगिकता है। आप, युवा स्नातकों, ने ज्ञान के इन क्षेत्रों का पता लगाया होगा और मुझे यकीन है कि आप निश्चित रूप से हमारे प्राचीन ग्रंथों के नए पहलुओं की खोज के लिए आगे का अध्ययन जारी रखेंगे।

प्रिय बहनों और भाइयों,

भाषा विचारों, चिंतनों और भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। यह आवाज है जो एक समुदाय के सामूहिक अनुभव और सांस्कृतिक परंपराओं को आकार देती है।

संस्कृत में लिखे गए असाधारण रचनात्मक कार्यों के कारण यह एक महत्वपूर्ण भाषा रही है।
हमें इन भाषाई खजाने को संरक्षित करना चाहिए। ऐसा समृद्ध इतिहास खोजे जाने की प्रतीक्षा में है।


हम कई भाषाओं वाले देश हैं, जिनमें से प्रत्येक की एक अलग समृद्धि है।
हम भाग्यशाली हैं कि हमारे देश में प्राचीन काल से ही यह समृद्ध भाषाई विविधता है। प्रत्येक भाषा की अपनी अनूठी संरचना और साहित्यिक परंपरा होती है। हमारी प्राचीन भाषाओं और उनके साहित्य ने भारत को विश्व गुरुबनने का प्रतिष्ठित दर्जा प्राप्त करने में काफी योगदान दिया है। संस्कृत, एक प्राचीन भाषा है जिससे अधिकांश भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति हुई है। इसका हमारे सांस्कृतिक परिदृश्य में एक विशेष स्थान है। अगर हम संस्कृत सीखते हैं तो हम भारतीय लोकाचार और गहरे सांस्कृतिक संबंध की सराहना कर सकते हैं जो सभी भारतीयों को बांधता है। यह भाषा है जो हमें एकसाथ जोड़ती है।

हमारा संविधान संस्कृत सहित 22 भारतीय भाषाओं को मान्यता देता है। हमने 6 प्राचीन भारतीय भाषाओं तमिल, संस्कृत, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और उड़िया के प्राचीन साहित्य को संरक्षित करने के विशेष प्रयासों के लिए उनकी पहचान की है। यह आवश्यक है कि हम संस्कृत और हमारी अन्य प्राचीन भाषाओं को संरक्षित और सुरक्षित रखें।
भाषा को केवल संवैधानिक प्रावधानों या सरकारी सहायता या संरक्षण द्वारा संरक्षित नहीं किया जा सकता है।

भाषा तभी जीवित रहती है और प्रचारित होती है जब परिवारों, समुदायों और शैक्षणिक संस्थानों द्वारा उसे महत्व दिया जाता है। यदि राष्ट्र इस भाषा में प्रसारित सांस्कृतिक विरासत को महत्व देता है तो इसका कायाकल्प हो जाता है। अगर, शैक्षणिक संस्थान एक मजबूत अनुसंधान आधार का निर्माण करते हैं और प्राचीन ग्रंथों पर सक्रिय शोध में संलग्न होते हैं और शोध के परिणामों को समकालीन दुनिया के लिए प्रासंगिक बनाते हैं तो इसका संरक्षण होगा।
हम तेजी से बदलती प्रौद्योगिकी के युग में जी रहे हैं। महामारी के दौरान, जब हर कोई घर से काम कर रहा था, हमने संचार क्रांति के महत्व को महसूस किया है। वही प्रौद्योगिकी हमें खाली समय में ऑनलाइन संस्कृत जैसी भाषाएं सीखने में हमारी मदद कर सकती है।

प्रौद्योगिकी संस्कृत को संरक्षित और प्रचारित करने के नए अवसर खोलती है। प्राचीन पांडुलिपियों, अभिलेखों और शिलालेखों का डिजिटलीकरण, वेदों के पाठ की रिकॉर्डिंग, प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के अर्थ और महत्व को उजागर करने वाली पुस्तकों का प्रकाशन, संस्कृत ग्रंथों में निहित हमारी संस्कृति को संरक्षित करने के कुछ तरीके होंगे। हमें इसे संस्कृत शिक्षा को पुनः प्रचलित करने के लिए एक जन-आंदोलन बनाना चाहिए जहां सभी हितधारकों को भारत के समृद्ध प्राचीन साहित्य और सांस्कृतिक विरासत की पुनः खोज में योगदान करना चाहिए।

आपके जैसे विश्वविद्यालयों को इस प्रयास में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है। आपको ज्ञान प्राप्ति के पारंपरिक तरीकों के साथ-साथ प्रौद्योगिकी का अच्छा उपयोग करना चाहिए। आपको प्राचीन ग्रंथों से सार निकालने का प्रयास करना चाहिए और इसे अधिक से अधिक लोगों तक आसानी से पहुंचाना चाहिए। स्वाध्यायऔर प्रवचनको अधिक समर्पण के साथ जारी रखना चाहिए।
दशवार्षिक समारोह के अवसर पर मुझे खुशी है कि कर्नाटक संस्कृत विश्वविद्यालय तीन प्रतिष्ठित विद्वानों को डॉक्टरेट की मानद उपाधियों से सम्मानित कर रहा है। मैं यह सम्मान पाने वाले आचार्य प्रद्युम्न, डॉ. वी.एस. इंदिराम्मा और विदवान उमाकांत भट को बधाई देता हूं और विश्वविद्यालय का उनकी छात्रवृत्ति का सम्मान करने के लिए अभिनंदन करता हूं। मैं आज डिग्री प्राप्त करने वाले छात्रों, उनके आचार्यों और उनके माता-पिता को उनकी शैक्षणिक उपलब्धियों के लिए बधाई देता हूं और उनके भविष्य के प्रयासों में सफलता की कामना करता हूं।

जयतु संस्कृतम, जयतु भारतम
जय हिन्द।

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