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52वें आईएफएफआई में 'द नॉकर' के निदेशक अनंत नारायण महादेवन ने कहा:  हम अपने दायरे के बाहर जीवन के प्रति असंवेदनशील हो गए हैं, शहरों में अकेलापन एक गंभीर विश्वव्यापी बीमारी बन गया है


"द नॉकर" एक महत्वपूर्ण सवाल पूछता है: क्या वे लोग जो वर्षों से शहरों में अकेले रहते हैं, अंत में मतिभ्रम और चीजों की कल्पना करके खुद को नुकसान पहुंचा रहे हैं?

हमारे नए डिजिटल युग में अभूतपूर्व जुड़ाव का जश्न मनाने के बावजूद, कोविड-19 महामारी ने अलगाव और अकेलेपन की भावना को तेज कर दिया है, यह भावना आधुनिक शहरीकृत और आपस में जुडी हुई दुनिया में साथ-साथ घर कर सकती है। हां, अकेलापन दुनिया भर में एक गंभीर पीड़ा है जिस पर हमें तत्काल और ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है और एक इंसान के अकेलेपन एवं एकांतवास और इससे उपजने वाले अंदरुनी संघर्ष के इसी मुद्दे पर लघु फिल्म ‘द नॉकर’ हमारा ध्यान दिलाती है। गोवा में 20 से 28 नवंबर, 2021 के दौरान मिश्रित (हाइब्रिड) प्रारूप में आयोजित किए जा रहे 52वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में भारतीय पैनोरमा खंड की गैर-फीचर श्रेणी के तहत यह फिल्म सिनेमा प्रेमियों को दिखाई गई।

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आज, 24 नवंबर, 2021 को 52वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के इतर एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए, फिल्म के निर्देशक और प्रतिष्ठित अभिनेता एवं फिल्मकार अनंत नारायण महादेवन ने साफ-साफ शब्दों में एक कड़वा सच बोलते हुए कहा, “शहरों में, हम अपने दायरे के बाहर जीवन के प्रति असंवेदनशील हो गए हैं, हम अपने भीतर अति-सक्रिय और अति-भावनात्मक हो गए हैं। अकेलापन पूरी दुनिया में एक गंभीर बीमारी बन गया है और यह बहुत से दिमागों को प्रभावित कर रहा है। यह समस्या बेलगाम ना हो जाए, इसके लिए हमें तत्काल इस पर ध्यान देना चाहिए।"

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यह फिल्म एक ऐसे व्यक्ति के बारे में है जो पूरी तरह से अकेले जी रहा है। इस अकेलेपन के बीच वह अचानक अपने सामने के दरवाजे पर दस्तक सुनता है।

जब यह दस्तक नियमित हो जाती है तो मामला और जटिल हो जाता है। मानो आग में घी डालने के लिए घर के अंदर अजीबोगरीब चीजें होने लगती हैं। महादेवन ने प्रतिनिधियों को समझाया कि ये काल्पनिक घटनाएं आदमी को यह सोचने को मजबूर करती हैं कि क्या वह जो अनुभव करता है वह महज उसकी एक कल्पना है, दिमाग का एक फितूर है। उन्होंने कहा, "फिल्म सवाल खड़ा करती है: क्या दस्तक आपके बाहर या अंदर है? यह अमूर्त हो जाता है क्योंकि नायक वास्तविकता और कल्पना के बीच भ्रमित हो जाता है। मन का एक मनोवैज्ञानिक नाटक घटित होता है और नायक को यह पता लगाना होता है कि इसे कैसे हल किया जाए।”

फिल्म की उत्पत्ति का खुलासा करते हुए, निर्देशक ने कहा, "मैंने एक अमेरिकी के बारे में पढ़ा था जो एक बंगले में बिल्कुल अकेला रहता था, जिसे अचानक एक बहुत ही भयानक एहसास हुआ कि वह घर में अकेला नहीं है। तो इससे प्रेरित होकर, मैंने यह फिल्म अकेले रहने और फिर अकेले होने पर बनाई है और यह दिखाने की कोशिश की है कि यह आदमी पूरी तरह से अकेले जी रहा है, वास्तव में चीजों की कैसे कल्पना करता है। वह अपने सामने के दरवाजे पर दस्तक सुनता है, लेकिन जब वह दरवाजा खोलता है, तो उसे कुछ भी नहीं दिखाई देता है।"

महादेवन ने समझाया कि यह फिल्म उन लोगों के मानसिक संघर्षों का पता लगाने का एक प्रयास है जो काम या अन्य प्रतिबद्धताओं के कारण वर्षों से शहरों में अकेले रहते हैं। उन्होंने कहा, "मूल रूप से, सवाल यह है कि जो लोग महानगरों में रहते हैं, जो बंधे-बंधे घरों में रहते हैं, जो लोग रचनात्मक और चीजों के प्रति संवेदनशील हैं, क्या वे चीजों की कल्पना करके खुद को नुकसान पहुंचा रहे हैं? यह उनके जीवन को कैसे प्रभावित करता है? यही ‘द नॉकर’ की कहानी है।"

निर्देशक ने कहा कि यह विशुद्ध रूप से एक प्रायोगिक फिल्म है जो उनके लिए सीखने का अनुभव बन गई। उन्होंने कहा, “हम सभी लॉकडाउन के दौरान घर पर बैठे थे, जब एक दिन इस फिल्म के निर्माता अश्विन गिडवानी ने मुझसे अचानक से पूछा कि 'आप एक लघु फिल्म क्यों नहीं बनाते हैं?' एक फिल्मकार के रूप में, मुझमें विड्रॉवल सिंड्रम (किसी आदत के छूटने पर मानसिक या शारीरिक लक्षण) के लक्षण आ गए थे। इसलिए, जब मैंने आखिरकार इस फिल्म को बनाने का फैसला किया, तो सबसे जरूरी बात यह थी कि कोई तकनीकी सहायता उपलब्ध नहीं थी। मुझे यह सब खुद ही करना था। मुझे पता नहीं था कि मैं क्या करूं। जब आपके लिए कुछ भी उपलब्ध नहीं होता तो कोई फिल्म कैसे बनाता है? जब कोई तकनीशियन नहीं, कोई अभिनेता नहीं, कुछ भी उपलब्ध नहीं होता।”

कोविड-19 की वजह से हुए लॉकडाउन के कारण तकनीशियनों या अभिनेताओं की अनुपस्थिति का मतलब था कि निर्देशक को विचार को वास्तविकता में बदलने के लिए कुछ अजीब रणनीति का सहारा लेना पड़ा। महादेवन ने कहा, “इस फिल्म को अकेले करने की कोशिश करना एक कठिन काम था। मुझे कुर्सी पर डमी सेट करना, कैमरे के पीछे जाना, कैमरा फोकस सेट करना और डमी को हटाने के लिए वापस आना और फिर खुद वहां बैठना, यहां तक ​​​​कि हाथ में कैमरे को अपने ऊपर ले जाने की कोशिश करना और प्वाइंट ऑफ व्यू (पीओवी) शॉट भी खुद ही करना था, ताकि यह किसी सेल्फी फिल्म की तरह ना दिखे।” निर्देशक ने कहा कि उन्होंने इसे ब्लैक एंड व्हाइट में शूट किया है ताकि इसे एक नॉयर (फिल्म की एक विधा) की तरह पेश किया जा सके।

उन्होंने कहा कि इस फिल्म ने उन्हें लॉकडाउन में काफी सहारा दिया। निर्देशक ने कहा, "मैं अपने निर्माता को मुझे यह अवसर देने के लिए धन्यवाद देता हूं।”

इस सवाल के जवाब में कि क्या वह कैमरे के सामने या उसके पीछे रहना पसंद करते हैं, 40 से अधिक फिल्मों में अभिनय कर चुके महादेवन ने कहा, ''अगर मेरा विषय बहुत दिलचस्प है, तो मैं उस फिल्म के निर्देशन में रुचि लेता हूं, मैं इस फिल्म के जरिए कुछ कहना चाहता हूं। हालांकि, अगर कोई शानदार भूमिका है जो मैं करना चाहता हूं, तो मैं वह भूमिका निभाना पसंद करूंगा। सौभाग्य से, मैं उन लोगों में से एक हूं जो अभिनय और निर्देशन दोनों करते रहे हैं, इसलिए मुझे यह चुनने का मौका मिलता है कि मैं क्या करूं।”

महादेवन ने कहा कि टीम इस फिल्म के लिए कुछ डिजिटल प्लेटफॉर्म पर विचार कर रही है। उन्होंने कहा, "उम्मीद है, यह जल्द ही एक प्रमुख डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दिखेगी और दर्शकों को इसका आनंद उठाने का मौका को मिलेगा।”

निर्देशक ने खुशी व्यक्त की कि उनकी एक और फिल्म ‘बिटरस्वीट’, इस साल महोत्सव के भारतीय पैनोरमा खंड की फीचर फिल्म श्रेणी में शामिल है। उन्होंने कहा, “बिटरस्वीट’ और ‘द नॉकर’ दोनों के इस साल आईएफएफआई में होने के कारण, यह उन दुर्लभ मामलों में से एक है जहां आईएफएफआई में एक निर्देशक की दो फिल्मों का चयन किया गया है। पांचवीं बार यहां आमंत्रित करने के लिए मैं आईएफएफआई का बहुत आभारी हूं।”

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