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केरल के किसान की अनूठी तकनीक काजू के पुराने बागानों में लगने वाले कीटों और बार-बार आने वाले चक्रवाती तूफानों से बचाव कर सकती है

Posted On: 25 OCT 2021 5:19PM by PIB Delhi

केरल के कन्नूर जिले की एक महिला किसान ने अपने काजू के पुराने बगीचे में लगे पेड़ों की जड़ों को विनाशकारी कीटों द्वारा कुतर लिए जाने और उस क्षेत्र में बार-बार आने वाले चक्रवाती समुद्री तूफानों से बचाने के लिए उन पेड़ों में सहायक जड़ों उत्पन्न करने के लिए एक अनूठी प्रक्रिया विकसित कर ली है I

भारत में काजू (एनाकार्डियम ऑक्सीडेंटेल एल.) की खेती का क्षेत्रफल लगभग 10.11 लाख हेक्टेयर है, और यह काजू उगाने वाले सभी देशों में सबसे अधिक हैI यहां कुल वार्षिक उत्पादन लगभग 7.53 लाख टन है तथा कई किसान अपनी आजीविका के लिए इस पर निर्भर हैं। हालांकि, काजू के उत्पादन में कई जैविक और अजैविक कारक बाधा बन जाते  है। तना और जड़ बेधक कीट पेड़ों को अंदर से छेदकर उन्हें सबसे दुर्बल बना देने वाले कीटों में से एक है क्योंकि यह थोड़े समय के भीतर बड़े हो चुके पेड़ों को भी समाप्त करने में सक्षम है।

कीटों के प्रकोप के अलावा, भारत के समुद्र तटीय राज्यों में काजू की खेती लगातार तीव्र चक्रवातों से भी प्रभावित होती है, और इस तरह प्रत्येक नुकसान को फिर से सही स्थिति में लाने के लिए हर बार दस साल से अधिक समय की आवश्यकता होती है।

 

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(क) चक्रवात से नष्ट काजू की खेती                    (ख) तना और जड़ बेधक कीट संक्रमण

         *चित्रों का स्रोत: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) - पुत्तूर

इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए, केरल की श्रीमती अनिम्मा बेबी ने काजू के पेड़ों के लिए एक अभिनव मल्टीपल रूटिंग प्रोपेगेशन विधि विकसित की है। यह विधि एक वयस्क काजू के पेड़ में कई जड़ें उत्पन्न करती है और इस प्रकार प्रति इकाई क्षेत्र के उत्पादन में सुधार करती है। इससे तना एवं जड़़ बेधक कीट के पर्यावरण के अनुकूल निपटान में सहायता मिलने के साथ ही उत्पादकता फिर से पुराने स्तर पर पहुँच जाती हैI इसके साथ ही तेज हवाओं से होने वाली क्षति / चक्रवाती समुद्री तूफानों के खिलाफ मजबूत टेक भी मिलती है और पेड़ों को फिर से रोप जाने की आवश्यकता के बिना ही स्वतः वृक्षारोपण पेड़ों के जीवनकाल में वृद्धि कर देता हैI

वर्ष 2004 में काजू की तुड़ाई के दौरान अनियम्मा ने देखा कि काजू के एक पेड़ की एक झुकी हुई शाखा जो संयोगवश लगातार मिट्टी के संपर्क में थी, से अतिरिक्त स्थानिक जड़ें  (एडवेंटीशियस रूट्स) निकल रही थी (मूसला जड {टैप रूट } नहीं)। उसने यह भी देखा कि इस जड़ से निकलने वाले नए पौधे का विकास सामान्य काजू के पौधे की तुलना में अधिक तेजी से होता है। अगले वर्ष तना छेदक (कीट लार्वा अथवा वह आर्थ्रोपोड, जो पौधे के तने में छेद कर देता है ) के भारी संक्रमण ने पुराने (मूल) पेड़  को नष्ट कर दिया, लेकिन नया विकसित पौधा स्वस्थ था और तना एवं जड बेधक संक्रमण से प्रभावित नहीं था। मूल पौधे  से नए पौधों की जड़ें निकलने  और उनके विकास देखकर, उन्होंने निचली समानांतर शाखाओं की  गांठों (नोड्स)  पर गमलों में डाली जाने वाली खाद्युक्त मिटटी (पॉटिंग मिक्सचर) के मिश्रण से भरी थैलियाँ  लपेटकर नए पौधे विकसित करने के बारे में सोचा। उन्होंने सुपारी के खोखले तने की मदद से नई जड़ को जमीन की ओर बढने के लिए निर्देशित किया, साथ ही जमीन के करीब की शाखाओं पर वजन डालकर उन्हें जमने के लिए मिट्टी से ढक दिया। उनके दोनों प्रयोग सफल रहे और वह इन दो विधियों का उपयोग अपने काजू के पुराने हो चुके बागानों में पिछले 7 वर्षों से कर रही है ताकि काजू की अधिक उच्च उपज की निरंतर आपूर्ति के साथ अपने परिवार की सहायता  कर सके।

भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की एक स्वायत्तशासी संस्था राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान (नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन) ने आवश्यक समर्थन और ऊष्मायन गतिविधियों के लिए इस नवीन प्रौद्योगिकी को अपनाया है ।

जीणशीर्ण हो चुके काजू के पेड़ों के पुनर्वृक्षारोपण के लिए काजू की मल्टीपल रूटिंग प्रौद्योगिकी को आगे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर)- काजू अनुसंधान निदेशालय, पुत्तूर ( मोट्टेथडका, दर्बे जिला - पुत्तूर, कर्नाटक) और केरल कृषि विश्वविद्यालय (वेल्लानिकारा, जिला - त्रिशूर, केरल) द्वारा 2020 में सत्यापित किया गया है। यह पाया गया है कि यह प्रविधि  अद्वितीय है और हवा से होने वाली  क्षति / चक्रवाती समुद्री तूफान के खिलाफ टेक भी प्रदान करती है तथा इसके साथ-साथ काजू के पेड़ों को काजू के तने और जड़ बेधक कीटों के गंभीर हमले से बचाने के साथ ही उन्हें पर्यावरण के बहुत ही अनुकूल और लागत प्रभावी तरीके से पुनर्स्थापित भी करती है। यह प्रौद्योगिकी काजू उत्पादकों को अतिरिक्त उपज की प्राप्ति के लिए काजू के पुराने हो चुके बागानों के लिए नई आशा भी जगाती है I

इस प्रविधि के अन्वेषक द्वारा उपयोग की जाने वाली दो अलग-अलग विधियों में बेलनाकार आकार विधि भी शामिल है- जिसमें मिट्टी के मिश्रण (मिट्टी और गाय के गोबर) से भरी एक थैली को जमीन के समानांतर उगने वाले काजू के पेड़ की निचली शाखाओं पर बांधा जाता है। सबसे पहले  निकलने वाली नई जड़ों को मिट्टी और गाय के गोबर से भरे सुपारी के खोखले तने के माध्यम से जमीन की पर बढने के लिए निर्देशित किया जाता है।, ये जड़ें एक वर्ष में विकसित होती हैं और काजू के पेड़ की जड़ों के उस नेटवर्क में जुड़ जाती हैं, जो पौधे को पोषक तत्व और पानी की आपूर्ति के लिए एक अतिरिक्त चैनल के रूप में कार्य करने के साथ ही  उपज में भी सुधार करता है।

विधि 1: पत्थर/सुपारी का खोखला तना बेलनाकार आकार में व्यवस्थित होता है

भूमि के समानांतर चल रही निचली शाखा प्रविधि (लो लाइंग पैरेलल ब्रांच मेथड) जिसमें इस अनूठी प्रविधि की नवोन्मेषक ने निचली शाखाओं की गांठों के चारों ओर पत्थरों का ढेर लगाया और उन्हें मिट्टी और गाय के गोबर से ढक दिया। इन गांठों (बिंदुओं) से जड़ें निकलती हैं, और फिर वह शाखा नए पेड़ के रूप में विकसित होती है जबकि मुख्य पेड़ का शेष भाग अलग  रहता है। वह चट्टानी क्षेत्रों में पड़ी शाखाओं पर भी जड़ें जमाने में सफल रही।

 

विधि 2 : निचली समानांतर शाखा विधि का उपयोग करना

अधिक जानकारी के लिए तुषार गर्ग (tusharg@nifindia.org) से संपर्क करें।

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