विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय

सीएसआईआर-सीएमईआरआई ने ‘एक्वा पुनर्जीवनसंयंत्र’ का अनावरण किया, जो कि शोधित अपशिष्ट जल के जरिए जैविक खेती के मॉडल को सुविधाजनक बनाता है

Posted On: 23 JAN 2021 6:09PM by PIB Delhi

सीएसआईआर-सेंट्रल मैकेनिकल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, दुर्गापुर ने पहली बार अपशिष्ट जल के शोधनके तकनीकी मॉडल का अनावरण किया, जो सिंचाई/ खेती के उद्देश्यों के लिए अपशिष्ट जल को शुद्ध करता है। सीएसआईआर-सीएमईआरआई के निदेशक प्रोफेसर (डॉ.) हरीश हिरानी ने श्री सुभेंदु बसु, अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (जिला परिषद), पश्चिम बर्धमान और अतिरिक्त कार्यकारी अधिकारी, पश्चिम बर्धमान जिला परिषद के साथ आज दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) स्थित सीएसआईआर-सीएमईआरआई कॉलोनी में 'एक्वा रेजुव' का उद्घाटन किया।

अपने उद्घाटन भाषण में प्रोफेसर हिरानी ने कहा कि वो विज्ञान के बुनियादी सिद्धांतों के इस्तेमाल के जरिए समाज को कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन, जल निकासी प्रणाली में अक्सर अवरोध और नाली के पानी रिसाव की समस्याओं सेनिजात दिलाना चाहते हैं। उन्होंने विभिन्न अध्ययनों का हवाला भी दिया,जिनमें इस बात का उल्लेख किया गया है कि कोविडवायरस में  नाली के पानी में 34 दिनों तक जीवित रहने की क्षमता है। इन सामाजिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, जो हमारे देश में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों से संबंधित मामलों के त्वरित निपटान के लिए वैधानिक निकाय है, के मानदंडों का पालन करते हुए इस तकनीक की कल्पना की।

एक्वा पुनर्जीवन संयंत्र (एआरपी) अपशिष्ट जल के पुनर्जीवन का एक एकीकृतमॉडल है जिसमें शुद्धि के विभिन्न मापदंडों के आधार पर अपशिष्ट जल के व्यापक शोधन के लिए एक छह - स्तरीय शुद्धिकरणप्रणाली का समावेशहै। एआरपी का उपयोग करके लगभग24,000 लीटर पानी कोसाफ़ किया जा सकता है जोकि लगभग 4 एकड़ कृषि भूमि (पानी की जरूरतों में मौसम के हिसाब से बदलाव को छोड़कर) के लिए पर्याप्त होगा। इस संयंत्र में इस्तेमाल किये जाने वाले फिल्ट्रेशन मीडिया को विशेष रूप से भारत में नाली के पानी से जुड़ेमानदंडों को संभालने के लिए विकसित किया गया है और भौगोलिक विविधता के आधार पर जररूत के अनुसार उनमें बदलाव किया जा सकता है। फ़िल्टर मीडिया भी स्थानीय रूप से स्रोत-सक्षम है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि एआरपी के बढ़े हुए उत्पादन के लिए आपूर्ति श्रृंखला में कोई दबाव नहीं हो। स्थिर होने के लिए थोड़ा और समय दिये जाने पर शोधित पानी,जिसे अब सिंचाई के लिए उपयोग किया जा रहा है, कोपीने के उद्देश्य से भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इस प्रणाली का दोहरा लाभ होता है।एक ओर जहां शोधित पानी का उपयोग सिंचाई के उद्देश्य के लिए किया जा रहा है, वहीँ फ़िल्टर किए गए गाद को खाद या उर्वरक के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। पतझड़ के मौसम में गिरने वाले सूखे पत्तों से तैयार जैविक कोयले (बायो चार) का उपयोग मिट्टी में मिश्रण के लिए भी किया जाता है क्योंकि यह सिंचाई के लिए पानी की जरुरत में कमी लाता है जिससे कीमती पानी की बचत होती है। यह संस्थान पहले भी इस तरह के उद्देश्य के लिए पानी की कम जरूरत के लिए स्प्रिंकल सिस्टम और अन्य वैकल्पिक तकनीकों का उपयोग कर रहा था। प्रोफेसर हिरानी ने समाज के विभिन्न हितधारकों, नागरिक निकायों, सरकारी अधिकारियों, गैर सरकारी संगठनों से वैज्ञानिक समुदाय से आगे आकर साथ मिलकर काम करने का आग्रह किया।

श्री सुभेंदु बसु ने इस संस्थान के वैज्ञानिक प्रयासों की सराहना की और कहा कि वर्तमान परिवेश में इस तकनीक की बेहद जरूरत है। उन्होंने कहा कि जल्द ही नगर निगम, सिंचाई विभाग और जिला प्रशासन सीएसआईआर-सीएमईआरआई के साथ मिलकर एक संगोष्ठी का आयोजन करेंगे ताकि आवश्यक स्थानों पर इसके उचित कार्यान्वयन के बारे में चर्चा की जा सके। श्री बसु ने विश्वास व्यक्त किया कि सीएसआईआर-सीएमईआरआई अपशिष्ट जल प्रबंधन सहित औद्योगिक प्रदूषण से संबंधित समस्याओं का समाधान निकालने में भीसक्षम है और उसके पास इसके लिए अनुसंधान एवं विकास से जुड़े उपाय होंगे।

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एमजी/एएम/आर


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