उप राष्ट्रपति सचिवालय
नई दिल्ली में छठे राज्य सभा इंटर्नशिप कार्यक्रम के समापन समारोह में उपराष्ट्रपति के संबोधन का मूल पाठ (अंश)
Posted On:
17 APR 2025 5:09PM by PIB Delhi
आप सबको सुप्रभात।
आप सौभाग्यशाली हैं कि अब यह 175 लोगों का समूह हो गया है। यह बहुत ही विशेष समूह है क्योंकि यह राज्यसभा प्रशिक्षुओं का छठा सत्र है। अब हमने एक संरचित मंच बनाने का निर्णय लिया है जो सम्पर्क बढ़ाएगा और यह मंच बड़े स्तर पर लोगों को राज्यसभा और लोकसभा में बनने वाले कानूनों की पूरी जानकारी प्रदान करेगा।
मैं माननीय अध्यक्ष महोदय के साथ मिलकर इस पर काम करूंगा और लगभग दो महीने में हम इसे आरंभ कर देंगे। इससे देश के लोगों को सांसदों के बारे में एक प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिलेगा और संविधान सभा की चर्चा से लेकर वर्तमान समय की संसदीय चर्चा की जानकारी मिलेगी। भारतीय संसद के अभिलेखागार तक भी आपकी पहुंच हो सकेगी।
इसलिए, एक बहुत ही विशेष समूह के रूप में आप दूतों के तौर पर कार्य करेंगे। जब मेरे कार्यकाल के दौरान यह समूह 500 की संख्या तक पहुंच जाएगा, तो भौगोलिक विस्तार, क्षेत्रीय पैठ, मानव जीवन के हर पहलू में समावेशिता परिलक्षित होगी और इससे आप, युवक और युवतियों को एक-दूसरे से जुड़ाव में मदद मिलेगी। यह भारतीय सिविल सेवा के अधिकारियों के एक बैच से कम नहीं होगा। यहां दो लोग मौजूद हैं राज्यसभा के महासचिव पीसी मोदी और रजित पुन्हानी, सचिव राज्यसभा।
युवक और युवतियां! भारत हज़ारों वर्षों से दुनिया में एक ऐसा देश रहा है, जिसका संस्कृति सभ्यता और मूल्यों की अर्थव्यवस्था पर कब्ज़ा रहा। हम एक विश्व शक्ति थे, जिसे विश्व गुरु माना जाता था। नालंदा, तक्षशिला जैसे हमारे उत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों में वैश्विक प्रतिभाएं पहुंचती थीं। उन्होंने हमसे सीखा, उन्होंने कुछ हमें दिया। हम एक समय में वैश्विक अर्थव्यवस्था का एक तिहाई हिस्सा थे।
इस उपलब्धि के बावजूद कहीं न कहीं कुछ गलत हुआ, लेकिन पिछले एक दशक में आशा और संभावना का एक पारिस्थितिकी तंत्र तैयार हुआ है। भारत की अर्थव्यवस्था में वृद्धि हुई है जिसकी विश्व संस्थाओं द्वारा वैश्विक स्तर पर सराहना की गई है। भारत ने बुनियादी ढांचे में व्यापक प्रगति की है जिसे हम हर दिन महसूस कर रहे हैं। जन-केंद्रित नीतियों ने तकनीक आधारित विकास को गांवों तक पहुंचा दिया है और इसलिए, भारत आज दुनिया का सबसे आकांक्षी राष्ट्र है और यह पृथ्वी ग्रह के लिए शुभ है।
सम्पूर्ण मानवता का छठा हिस्सा भारत में निवास करता है, हम आकांक्षी हैं, यह हमारे लिए एक चुनौती है। मेरे सामने बैठे युवक और युवतियां शासन के सबसे महत्वपूर्ण हितधारक हैं और आप लोकतंत्र के भविष्य हैं। हमारे युवा जनसांख्यिकीय लाभ से दुनिया ईर्ष्या करती है। हम एक जीवंत लोकतंत्र हैं, लोकतंत्र की जननी हैं। हमारे यहां सभी स्तरों पर लोकतंत्र संवैधानिक रूप से संरचित है, लेकिन जब चीजें ऊपर की ओर जा रही हैं तो हमें विपरीत परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ रहा है। ये भारत के हित विरोधी ताकतों की वजह से हो रहा है। वे गलत कहानियां गढ़ने के तंत्रों को संचालित करने का प्रयास कर रहे हैं, हमारे राष्ट्रीय विकास की छवि को धूमिल करने, हमारी संवैधानिक संस्थाओं को शक्तिहीन करने और उनका ह्रास करने का भयावह तंत्र रच रहे हैं। इसलिए, देश के हर युवा मन को सतर्क रहना होगा, समझदार होना होगा, सवाल उठाना होगा, क्योंकि यह सवाल ही है जो महत्वपूर्ण है क्योंकि यह लोकतंत्र को उदात्त और जीवंत रखती है।
हमें उन परिस्थितियों को चुनौती देना सीखना चाहिए जो हमारी समृद्ध संस्कृति और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। इस तरह हम अपने विकास को अग्रसर बनाए रखने में योगदान दे सकते हैं। इसलिए आप सभी युवक और युवतियों को सोचना होगा, चिंतन करना होगा कि क्या सब कुछ ठीक है? क्या मैं चिंतित हूं? और इसलिए आज, मेरा ध्यान विशेष रूप से नागरिकों की भूमिका, युवाओं की भूमिका पर रहेगा।
मैं हाल की घटनाओं को सामने लाना चाहता हूं, जो हमारे दिमाग पर हावी हैं। 14 और 15 मार्च की रात को नई दिल्ली में एक न्यायाधीश के आवास पर एक घटना घटी, सात दिनों तक किसी को इसकी जानकारी नहीं थी। हमें खुद से सवाल पूछने होंगे। क्या देरी की वजह समझ में आती है? क्या यह क्षमा योग्य है! क्या इससे कुछ बुनियादी सवाल नहीं उठते? सामान्य परिस्थितियों में कानून सम्मत शासन के अनुसार चीजें अलग होतीं। 21 मार्च को जब एक अख़बार ने खुलासा किया कि तो देश के लोग हैरान रह गए।
वे इस विस्फोटक खुलासे के बाद अनिश्चितता की स्थिति में थे। सौभाग्य से हमारे पास सार्वजनिक स्तर पर आधिकारिक स्रोत के रूप में भारत के सर्वोच्च न्यायालय से प्राप्त जानकारी थी जिसने दोषी होने के संकेत दिए। इससे संदेह नहीं है कि कुछ गड़बड़ थी, बल्कि कुछ ऐसा था जिसकी जांच की आवश्यकता थी।
अब देश सांस थामे प्रतीक्षा कर रहा है, क्योंकि हमारी एक संस्था जिसे लोग हमेशा सर्वोच्च सम्मान और आदर से देखते हैं, उसे कटघरे में खड़ा किया गया है। एक महीने से अधिक समय हो गया है, भले ही यह बड़े विवाद को जन्म दे इसे सार्वजनिक डोमेन में आने दें ताकि सफाई हो सके, एक पल के लिए भी मैं नहीं कहूंगा कि हमें निर्दोषिता को महत्व नहीं देना चाहिए।
लोकतंत्र का पोषण होता है, उसके आधारभूत मूल्य विकसित होते हैं, मानवाधिकारों को उच्च स्थान दिया जाता है जब तक कि दोष सिद्ध न हो जाए। इसलिए, मुझे किसी व्यक्ति पर संदेह करने के लिए गलत नहीं समझा जाना चाहिए। लेकिन एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में आपराधिक न्याय प्रणाली की शुद्धता उसकी दिशा निर्धारित करती है और जांच की आवश्यकता होती है।
युवक और युवतियों, इस समय कानून के तहत कोई जांच नहीं चल रही है, क्योंकि आपराधिक जांच के लिए प्राथमिकी दर्ज किए जाने से शुरुआत होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। यह देश का कानून है कि हर संज्ञेय अपराध की रिपोर्ट पुलिस को देनी होती है और संज्ञेय अपराध की रिपोर्ट न करना अपराध है। इसलिए, आप सभी सोच रहे होंगे कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज क्यों नहीं हुई, इसका जवाब आसान है।
इस देश में किसी के भी विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है, चाहे वह संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति ही क्यों न हो। इसके लिए केवल कानून के शासन को सक्रिय करना होता है, किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन अगर वे न्यायाधीश हैं, तो उनकी श्रेणी की प्राथमिकी शासन के माध्यम से दर्ज नहीं की जा सकती। इसके लिए न्यायपालिका में संबंधित शीर्ष पदासीन द्वारा अनुमोदन की आवश्यकता होती है। लेकिन संविधान में ऐसा उल्लेखित नहीं है। भारतीय संविधान ने केवल माननीय राष्ट्रपति और माननीय राज्यपालों को ही अभियोजन से प्रतिरक्षा प्रदान की है, तो कानून से परे एक श्रेणी को यह प्रतिरक्षा कैसे प्राप्त हो गई, इसके दुष्परिणाम सभी के मन में उठ रहे हैं।
हर भारतीय युवा और वृद्ध बहुत चिंतित है, अगर यह घटना उनके घर पर हुई होती तो कार्रवाई की गति इलेक्ट्रॉनिक रॉकेट की तरह होती। अब, यह बैलगाड़ी की तरह भी नहीं है। हमें यह सवाल भी सोचना चाहिए, मामले की जांच करने वाली तीन न्यायधीशों की समिति है लेकिन जांच तो कार्यपालिका का क्षेत्र है। जांच न्यायपालिका का क्षेत्र है ही नहीं। क्या समिति भारत के संविधान के तहत बनी है? नहीं। क्या तीन न्यायाधीशों की इस समिति को संसद से बने किसी कानून के तहत कोई मंजूरी मिली हुई है? नहीं। समिति क्या कर सकती है, समिति अधिक से अधिक सिफारिश कर सकती है। किसको और किस लिए सिफारिश करें हमारे पास न्यायाधीशों के लिए जिस तरह की व्यवस्था है, अंत में एकमात्र कार्रवाई जो की जा सकती है वह संसद ही है, जहां महाभियोग की कार्यवाही शुरू की जाती है। तो एक महीना से अधिक समय बीत गया है और जांच में तेजी, शीघ्रता, दोषपूर्ण सामग्री को संरक्षित करने की आवश्यकता है। देश के नागरिक के रूप में और जिस पद पर मैं हूं, मुझे चिंता है। क्या हम कानून के शासन को कमजोर नहीं कर रहे? क्या हमारी जवाबदेही नहीं हैं? उनके प्रति जिन्होंने हमें संविधान दिया।
इसलिए, मैं सभी संबंधित पक्षों से आग्रह करता हूं कि वे इसे एक परीक्षण मामले के रूप में देखें, इस समिति के पास क्या वैधता और अधिकार क्षेत्र है। क्या हम एक वर्ग द्वारा बनाए गए अलग कानून को संविधान और संसद से अलग रख सकते हैं।
मेरे अनुसार समिति की रिपोर्ट में स्वाभाविक रूप से कानूनी स्थिति का अभाव है
तो क्या हम ऐसे हालात में आ गए हैं कि समय के साथ यह बात चली जाएगी? लोगों के दिल पर इस घटना से गहरी चोट लगी है। लोगों का विश्वास डगमगा गया है।
हाल ही में एक मीडिया हाउस द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में संकेत मिला है कि न्यायपालिका में जनता का भरोसा कम हो रहा है। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि उसके तीन बुनियादी स्तंभ विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका ईमानदार, पारदर्शी और लोगों के प्रति जवाबदेह हों।
उच्चतम मानकों का पालन होना चाहिए और इस मामले में कानून के समानता के सिद्धांत की अवहेलना की गई है। समानता का सिद्धान्त हमारे लोकतंत्र का मूल है, लोकतंत्र का अमृत है और अब समय आ गया है कि हम इसे लागू करें।
यह मार्च का महीना है, अभी भी हम अंधेरे में टटोल रहे हैं, सुरंग गहरी होती जा रही है, आगे क्या होगा, इसका कोई सुराग नहीं मिल रहा है। सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है कि हम किसी घटना को भूल जाते हैं, क्योंकि अन्य घटनाएं हमसे आगे निकल जाती हैं पर यह कोई मामूली घटना नहीं है।
मैं सभी संबंधित पक्षों से आग्रह करता हूं कि वे अत्यधिक सतर्क और सक्रिय रहें ताकि संविधान की सत्ता बहाल हो सके।
युवक और युवतियों, मैं आपको इस साल के आरंभ में 27 जनवरी, 2025 को सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय लोकपाल पीठ के फैसले से परिचित कराता हूं। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच करने का अधिकार उसके पास है। इस पर स्वयं संज्ञान लिया गया और ध्यान रहे, अगर आप अन्य लोकतांत्रिक देशों की न्यायिक व्यवस्थाओं को देखें तो स्वप्रेरणा से संज्ञान लेना अज्ञात है। तो फिर न्यायपालिका की स्वतंत्रता कोई कवच नहीं है यह स्वतंत्रता जांच के खिलाफ किसी तरह का अभेद्य आवरण नहीं है।
संस्थाएं पारदर्शिता से ही फलती-फूलती हैं अब इस मामले में कोई पूछताछ नहीं, कोई छानबीन नहीं, कोई जांच नहीं, तो हम इस स्थिति को कैसे स्वीकार कर सकते हैं। ये गंभीर मुद्दे हैं।
मैं आपको बताता हूं कि इसकी शुरुआत कहां से हुई। संविधान निर्माता बहुत विवेकशील लोग थे। वे राष्ट्र कल्याण में गहरी आस्था रखते थे। उन्होंने 3 साल से भी कम समय में 18 सत्रों तक चर्चा की। कोई टकराव नहीं हुआ, कोई गड़बड़ी नहीं हुई, कोई व्यवधान नहीं हुआ, संवाद हुआ, बहस हुई, चर्चा हुई और विचार-विमर्श हुआ। उनके पास बेहद विवादास्पद मुद्दे थे, लेकिन उन्होंने नियम बनाया, न्यायाधीशों की नियुक्ति अनुच्छेद 124 के तहत की जाएगी और इसके लिए एक परामर्श बोर्ड का इस्तेमाल किया गया।
युवक और युवतियों, आप जानते हैं कि परामर्श शब्द की परिभाषा शब्दकोश में क्या दी गई है, परामर्श सहमति नहीं है, परामर्श विमर्श है। अनुच्छेद 124 बहुत विशिष्ट था और अनुच्छेद 124 के संबंध में हमारे पास डॉ. बी आर अंबेडकर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण उद्बोधन है, बी आर अंबेडकर जिन्होंने हमें यह संविधान प्रदान करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई मैं उन्हें उद्धृत कर रहा हूं। यह मुख्य न्यायाधीश की सहमति के प्रश्न के संबंध में था और डॉ. बीआर अंबेडकर कहते हैं, "मुझे लगता है कि मुख्य न्यायाधीश को न्यायाधीशों की नियुक्ति पर व्यावहारिक रूप से वीटो देने का अधिकार वास्तव में मुख्य न्यायाधीश को अधिकार हस्तांतरित करना है, जिसे हम राष्ट्रपति या तत्कालीन सरकार में निहित करने को तैयार नहीं हैं। इसलिए मुझे लगता है कि यह भी एक आपत्तिजनक प्रस्ताव है।" लेकिन इसके बाद 1993 में दूसरे न्यायाधीश के मामले में, न्यायालय ने परामर्श की व्याख्या सहमति के रूप में की। पर क्या ऐसा किया जा सकता है?
युवक और युवतियों दो अलग-अलग शब्द हैं, लेकिन पीठ ने यह नहीं देखा कि भारतीय संविधान में परामर्श और सहमति इन शब्दों का इस्तेमाल उसी अनुच्छेद, अनुच्छेद 370 में किया गया है, जो तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में है। अनुच्छेद 370 में दोनों ही अभिव्यक्तियां एक ही उप-अनुच्छेदों में हैं।
संविधान में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा, संविधान सभा के सदस्यों द्वारा अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल किए गए इन दो शब्दों को अलग-अलग तरीके से कैसे पढ़ा जा सकता है? ऐसा किया गया। अब, स्थिति सभी का ध्यान आकर्षित कर रही है और इस देश के नागरिकों के रूप में यह हमारा दायित्व है कि हम इस बारे में सोचें कि चीजों को कैसे विकसित करना चाहिए। मुझे कोई संदेह नहीं है कि संसद न्यायालय के फैसले को नहीं लिख सकती।
संसद केवल कानून बना सकती है और न्यायपालिका तथा कार्यपालिका सहित संस्थाओं को जवाबदेह बना सकती है, लेकिन निर्णय लिखना, न्याय करना न्यायपालिका का ही विशेषाधिकार है, जैसे कानून बनाना संसद का काम है। लेकिन क्या हम नहीं पाते कि इस स्थिति को चुनौती दी जा रही है? मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हम अक्सर पाते हैं कि कार्यकारी शासन न्यायिक आदेशों द्वारा हो रहा है, जब कार्यपालिका, सरकार लोगों द्वारा चुनी जाती है, तो सरकार संसद के प्रति जवाबदेह होती है, सरकार चुनाव में लोगों के प्रति जवाबदेह होती है।
जवाबदेही का सिद्धांत काम कर रहा है। संसद में आप सवाल पूछ सकते हैं, आलोचनात्मक सवाल, क्योंकि शासन कार्यपालिका द्वारा होता है लेकिन अगर न्यायपालिका, कार्यपालिका द्वारा शासन करती है, तो आप सवाल कैसे पूछ सकते हैं? चुनाव में आप किसे जवाबदेह ठहराते हैं? समय आ गया है जब हमारी तीन संस्थाएं, विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका अपना दायित्व उत्तम तरीके से निभाएं। और राष्ट्र हित में सबसे बेहतर तरीका है जब वे अपने-अपने क्षेत्रों में काम करें। किसी अन्य के क्षेत्र में कोई भी घुसपैठ चुनौती बन जाती है, जो अच्छी बात नहीं है। यह संतुलन बिगाड़ सकता है। इन तीनों के बीच संबंध स्वस्थ, सुखद, गहरी समझ से भरी और, समन्वय पूर्ण होना चाहिए, न कि अधिकार जताने की।
ऐतिहासिक रूप से और वर्तमान में भी कई देशों में, न्यायाधीश अपने निर्णयों के द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। लेकिन अब वे अच्छे और पुराने दिन नहीं रह गए। हम पूरी तरह से एक अलग ही दृश्य देख रहे हैं। न्यायालय वह अंतिम स्थान था जहां न्यायाधीश अपना आदेश सुनाता था, लेकिन अब स्थिति यह है कि न्यायाधीश सार्वजनिक मंचों, मीडिया प्लेटफार्मों पर भी अपने विचार प्रकट कर रहे हैं। यहां तक कि ऐसे क्षेत्र में जो चुनौतीपूर्ण है और जो उनका अधिकार क्षेत्र नहीं है। मैं केवल यही आशा करता हूं कि विधायिका संसद से अपना काम करेगी और न्यायाधीश न्यायालयों से। कार्यपालिका संविधान सम्मत दायित्व निभाएगी।
अभी हाल ही में एक घटना हुई। मैं समसामयिक मुद्दों पर बात कर रहा हूं। यह घटना हुई एक किताब के विमोचन पर और उच्चतम न्यायालय के एक पूर्व न्यायधीश की किताब का फोकस संवैधानिक मूल ढांचा था। दिन चुना गया 14 अप्रैल, जो डॉ. बी.आर. अंबेडकर से जुड़ा हुआ है। तो उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायधीश और किताब के प्रख्यात लेखक ने 13 अप्रैल का ज़िक्र किया। उन्होंने एक घटना का ज़िक्र किया जो 13 अप्रैल को आज़ादी से पहले जलियांवाला बाग में घटी, जहां हमारे ही लोगों को मारा गया, नरसंहार किया गया, घायल किया गया और हमारे ही लोगों ने, जनरल डायर के नेतृत्व में गोलियां चलाईं और फिर वे मूल ढांचे के सिद्धांत पर आए, कि इस सिद्धांत के कारण अब ऐसा नहीं हो सकता। एक पल के लिए केशवानंद भारती मामले ने हमें जो सिद्धांत दिया, उसका परीक्षण करें।
उच्चतम न्यायालय के 13 न्यायाधीशों की पीठ का फैसला 24 अप्रैल 1973 को आया और लेखक के अनुसार यही हमारा उद्धारकर्ता है। लेकिन हमारे पास ये बुनियादी ढांचा सिद्धांत होने के बाद भी एक प्रधानमंत्री ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा दिया। न्यायाधीश भूल गए हैं। दर्शक भूल गये हैं। इसे आकर्षक प्रवचन, जिज्ञासु श्रोता माना जाए। किसी ने सवाल नहीं उठाए। यह जो अवतार था, यह जो अमर था, जो ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगा देगा और जिसका इतना महिमामंडन हो रहा है। जलियांवाला बाग के संदर्भ में वे भूल गए ताजा इतिहास को 24 अप्रैल, 1973 को और आप देखिए, 2 साल पूरे होते ही 25 जून को आपातकाल लगा दिया गया। लाखों लोगों को जेल में डाल दिया गया और 21 मार्च, 1977 तक जेल में रखा गया। लाखों लोग! इस बुनियादी ढांचे के रहते उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया, आपातकाल में आपके पास कोई मौलिक अधिकार नहीं है। यह बुनियादी ढांचे के प्रति आपकी श्रद्धांजलि के लिए बहुत कुछ है। देश की सर्वोच्च अदालत ने बुनियादी ढांचे की अभेद्यता के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
इसके बाद नौ उच्च न्यायालयों की पीठ ने फैसले को पलटते हुए, आम सहमति से कहा कि आपातकाल के दौरान भी मौलिक अधिकारों को रोका नहीं जा सकता। न्यायपालिका तक पहुंच होनी चाहिए। देश की सबसे बड़ी अदालत, एक पूर्व न्यायाधीश, जो पुस्तक के लेखक हैं, नागरिक अधिकारों पर हमले के खिलाफ पूर्ण सुरक्षा सिद्धांत की सराहना करते हैं, अपने जीवनकाल में जो कुछ हुआ, उससे इतने बेखबर थे।
जरा सोचिए, ये कहानियां हमारे सामने एक महत्वपूर्ण समय पर रखी जा रही हैं, क्योंकि हम सवाल नहीं पूछते। मैं चाहता हूं कि दर्शकों में से किसी ने यह सवाल पूछा होता कि 1975 में आपके मूल ढांचे के सिद्धांत का क्या हुआ? फिर अगला सवाल होना चाहिए था कि 1 जून 1984 को दिल्ली में क्या हुआ? हमारे स्वतंत्रता प्रेमी लोगों को हजारों की संख्या में निशाना बनाया गया। स्वर्ण मंदिर में क्या हुआ? मैं यह कहना चाहता हूं कि इन कहानियों को सच मानकर न चलें। ये कहानियां खतरनाक हैं। समझदार युवाओं द्वारा इन कहानियों को उजागर किया जाना चाहिए। आपको सवाल करना सीखना चाहिए, क्योंकि हमने लोगों को ऐसे तंत्र के माध्यम से प्रतीक बना दिया है जो तर्कसंगत नहीं है।
हमने बिना जांचे-परखे लोगों को मशहूर बना दिया है, हमें लगता है कि वे जो कहते हैं वही सही है। जब लेखक उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश थे, तब किसी ने उनसे नहीं पूछा कि कॉलेजियम सिस्टम क्यों काम नहीं कर रहा। हमें सवाल पूछना सीखना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र में यही हमारा सबसे बुनियादी अधिकार है। अगर आप मुझसे सवाल नहीं पूछेंगे, तो आप अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे। 1975 में यह संख्या 500 हो जाएगी। यह वह वर्ग होगा जो सवाल भी पूछेगा। हमें अति आलोचनात्मक होने की आवश्यकता नहीं है। हमें टकराव की भी आवश्यकता नहीं है, लेकिन हमें हर परिस्थिति में राष्ट्र पर भरोसा रखना होगा।
मेरी चिंताएं बहुत अधिक हैं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे जीवन में मुझे कुछ ऐसा देखने को मिलेगा। भारत के राष्ट्रपति का दर्जा बहुत ऊंचा होता है। राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, सुरक्षा और बचाव की शपथ लेते हैं। यह शपथ केवल राष्ट्रपति और उनके द्वारा नियुक्त राज्यपाल ही लेते हैं।
हर कोई, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, मंत्री, सांसद, न्यायाधीश, संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं लेकिन संविधान की रक्षा करने, संविधान को बनाए रखने, संविधान की रक्षा करने की शपथ भारत के राष्ट्रपति की शपथ है। वे हैं - सशस्त्र बलों के सर्वोच्च कमांडर। युवक और युवतियां, अगर आप भारतीय संविधान को देखें, जब संसद की परिभाषा की जाती है, तो आपके अनुसार संसद लोकसभा, राज्यसभा है – पर ऐसा नहीं है।
संसद का पहला भाग राष्ट्रपति है, दूसरा और तीसरा भाग लोकसभा और राज्यसभा है। हाल ही के एक निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति को भी निर्देशित किया जा रहा है। हम कहां जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है? हमें बेहद संवेदनशील होना पड़ेगा।
यह सवाल किसी के पुनर्विचार याचिका करने या न करने का नहीं है। हमने इस दिन के लिए लोकतंत्र की कभी कल्पना नहीं की थी। राष्ट्रपति को समयबद्ध तरीके से निर्णय लेने के लिए कहा जाता है और यदि ऐसा नहीं होता है, तो यह कानून बन जाता है। इसलिए हमारे पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाएंगे, जो कार्यकारी कार्य करेंगे, जो सुपर संसद के रूप में कार्य करेंगे और उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी क्योंकि देश का कानून उन पर लागू ही नहीं होता।
मैं आपको बता दूं कि हर सांसद, और सांसद क्यों? विधानसभा या संसद के किसी भी चुनाव में हर उम्मीदवार को अपनी संपत्ति घोषित करनी होती है। वे ऐसा नहीं करते। कुछ करते हैं, कुछ नहीं करते। समय आ गया है कि हम इस पर गहराई से विचार करें। मैं यहां किसी मुद्दे में शामिल होने नहीं आया हूं। मुझे भारत पर गर्व है जो पहले से कहीं ज्यादा तेजी से प्रगति के पथ पर अग्रसर है, यह अजेय बढ़त है। मुझे देश के पारिस्थितिकी तंत्र पर गर्व है जो उम्मीद और संभावनाओं से भरा है। तेज अर्थव्यवस्था, अविश्वसनीय बुनियादी ढांचा, प्रधानमंत्री की वैश्विक प्रतिष्ठा। जो पहले कभी नहीं सुनी गई कि भारतीय प्रधानमंत्री उस स्तर के वैश्विक नेता होंगे। भारत का अब हर जगह सम्मान है। इसलिए हमें अतिरिक्त सतर्क रहना होगा कि ये ताकतें जो सक्रिय हैं, आपको उनका विश्लेषण करना होगा।
मैं किसी व्यक्ति विशेष पर हमला नहीं करना चाहता। मैं सभी का सम्मान करता हूं, लेकिन फिर हमें विश्लेषणात्मक मस्तिष्क, विवेकशील सोच से युक्त होना चाहिए। हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहां आप भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें और किस आधार पर संविधान के तहत आपके पास अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करने का एकमात्र अधिकार है। लेकिन इसके लिए भी वहां पांच न्यायाधीशों की पीठ होनी चाहिए।
युवक और युवतियों। जब अनुच्छेद 145(3) था, तब उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या आठ थी। आठ में से पांच, अब 30 में से पांच और उम्रदराज। लेकिन भूल जाइए। जिन न्यायाधीशों ने राष्ट्रपति को वस्तुतः परमादेश जारी किया और एक परिदृश्य प्रस्तुत किया कि यह देश का कानून होगा। वे संविधान की शक्ति को भूल गए हैं।
अनुच्छेद 145(3) के तहत किसी मामले से निपटने के लिए न्यायाधीशों का वह समूह कैसे सुरक्षित है? तब यह आठ में से पांच के लिए था। हमें अब उसमें भी संशोधन करने की आवश्यकता है। आठ में से पांच का मतलब है कि व्याख्या बहुमत से होगी। पांच का मतलब आठ में से बहुमत से ज्यादा है, लेकिन इसे छोड़ दें।
अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल जैसा बन गया है। न्यायपालिका के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध है। युवक और युवतियों, मैं आपसे क्यों बात कर रहा हूं? आप ही भविष्य हैं। आप ही हितधारक हैं। मैं सिर्फ़ आपको संबोधित नहीं कर रहा हूँ, मैं देश के सभी युवाओं को संबोधित कर रहा हूं। आई आई टी में, आई आई एम में, उत्कृष्टता के संस्थानों में, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, स्कूलों में। हमें राष्ट्र में विश्वास उत्पन्न करना होगा। हमें अपने लोगों की शक्ति में विश्वास करना होगा। और शक्ति केवल प्रतिनिधियों के माध्यम से परिलक्षित होती है, हम अपना रास्ता खो रहे हैं।
अच्छी बात यह है कि सरकार की नीतियों के नतीजे मिल रहे हैं। जन-केंद्रित नीतियों का लाभ सामान्य व्यक्ति को मिल रहा है। सामान्य व्यक्ति के पास आज बैंक खाता है, घर में शौचालय है, इंटरनेट कनेक्शन है, गैस कनेक्शन है, बिजली कनेक्शन है। स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, शिक्षा सुविधाएं हैं। बस, ट्रेन, हवाई जहाज से आवागमन सम्पर्क है और उसे विकास का अहसास हो रहा है।
आज हम संकल्प लें कि हमारा लोकतंत्र संविधान पर ही टिका रहे और संविधान यह अपेक्षा करता है कि इसके सभी अंग आपस में मिल-जुलकर, समन्वयपूर्वक और अपने-अपने क्षेत्र में व्यापक हित के लिए बेहतर तरीके से कार्य करें। यह किसी एक संस्था के सर्वश्रेष्ठ होने का प्रश्न नहीं है, लेकिन कुछ बातें बहुत स्पष्ट हैं।
न्यायाधीशों की नियुक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और उनके विरूद्ध कार्रवाई करने का एकमात्र अधिकार संसद को है। इसलिए अब समय आ गया है कि हम प्रतिक्रिया मोड में न रहें। कोई बात कहना आसान है, अरे, देश के उपराष्ट्रपति ने ऐसा कहा है।
मैं खास तौर पर मीडिया से अपील करता हूं। मैं यह बात दिल से कह रहा हूं। मैं न्यायपालिका का सिपाही हूं। मैंने अपने बहुमूल्य जीवन के चार दशक न्यायपालिका को दिए हैं जिसमें तीन दशक वरिष्ठ अधिवक्ता के तौर पर रहे हैं। जब भी न्यायपालिका को चुनौती देने की बात आती है, मैं हमेशा न्यायपालिका के पक्ष में खड़ा रहता हूं। हमें अपनी न्यायपालिका पर गर्व है। इसकी वैश्विक मान्यता है। हमारे न्यायाधीशों में प्रतिभा है, लेकिन इसमें एक बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
मुझे कोई संदेह नहीं है कि हमारे न्यायाधीशों की बुद्धि इस अवसर पर उभरेगी और स्व-नियमन विकसित होगा। मेरा दृढ़ विश्वास है कि चाहे वह विधायिका हो या न्यायपालिका, स्व-नियमन सबसे प्रभावी विनियमन है। विचार किसी मुद्दे को जोड़ने का नहीं है। विचार कभी भी तर्क-वितर्क में शामिल होने का नहीं है। विचार में प्रतिकूल संबंध रखने का नहीं है। विचार में संधि स्थल बनाने का है। विचार में यह सुनिश्चित करना है कि हमारे संस्थापक पिताओं ने संविधान, हमारी संस्थाओं के बारे में जो कल्पना की थी, हम उसे दीप्तिमान बनाएं और उसे चमकाएं तथा व्यापक भलाई के लिए इस्तेमाल में लाएं।
युवक और युवतियों, मैंने इन घटनाओं का उल्लेख इसलिए किया क्योंकि ये हाल की घटनाएं हैं, लेकिन दो और घटनाओं का आपसे जिक्र करना चाहता हूं जब मैंने पुस्तक विमोचन समारोह पर विचार किया, तो लेखक एक उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश थे, मैंने प्रासंगिक रूप से आपातकाल का जिक्र किया क्योंकि 1973 में केशवानंद भारती द्वारा विकसित मूल संरचना के सिद्धांत पर जोर दिया गया था, लेकिन मैं आपको हाल ही में हुई दो घटनाओं के बारे में बताना चाहता हूं।
ये केवल उस दृष्टिकोण से आपका ध्यान आकर्षित करने के लिए हैं। एक था संविधान दिवस, क्योंकि हर भारतीय को पता होना चाहिए कि हम संविधान दिवस क्यों मनाते हैं। हम इसे पिछले एक दशक से मना रहे हैं और संविधान हत्या दिवस इसलिए क्योंकि आप युवक और युवतियों को पता नहीं है कि आपातकाल के दौरान हमारे नागरिकों को किस तरह के दर्दनाक अनुभव से गुजरना पड़ा।
युवाओं और बच्चों के मन पर क्या प्रभाव पड़ा, जब उनके राष्ट्रवादी माता-पिता बिना किसी कारण के हिरासत में ले लिए गए और उन्हें न्यायपालिका तक नहीं पहुंचने दिया गया। उनमें से कई बाद में मंत्री, मुख्यमंत्री, कैबिनेट मंत्री और प्रधानमंत्री बने इसलिए, इन दो दिनों में आपको खुद को समर्पित करना चाहिए, अंदर सोचना चाहिए और उसके अनुरूप कार्य करना चाहिए।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप सभी को एक दूसरे से जुड़ने का अच्छा अनुभव हुआ होगा। वर्ष के अंत तक या अगले साल की शुरुआत में, हम तब तक सभी प्रतिभागियों के साथ दिल्ली में एक मिलन समारोह आयोजित करेंगे। इसलिए आपको आपस में मिलने-जुलने का अवसर भी मिलेगा, लेकिन जो मंच बनाया जा रहा है, उसमें एक दूसरे के संपर्क में रहें। जब भी आप किसी ऐसी जगह पर जाएं जहां आपको यहां से इंटर्नशिप कर चुका व्यक्ति मिले तो उससे जुड़ने की कोशिश करें। यह एक अच्छा अनुभव रहेगा।
अपने विचारों और सोच को साझा करना आरंभ करें क्योंकि विचार ही लोकतंत्र का उपहार है। आपको विचार करना होगा। विचार की शक्ति, हमारी प्रगति की दिशा निर्धारित करेगी।
मैं आप सबकी भलाई की कामना करता हूं।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
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एमजी/केसी/एकेवी/केके
(Release ID: 2122552)
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