संस्‍कृति मंत्रालय
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"रामायण, भारतीय संस्कृति को मूल रूप जानने का साधन है" - महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि

Posted On: 24 AUG 2025 8:00PM by PIB Delhi

संस्कृति मंत्रालय के तत्वावधान में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) के कला निधि प्रभाग ने प्रख्यात शिक्षाविद् एवं लेखक डॉ. विनोद कुमार तिवारी द्वारा लिखित तीन सांस्कृतिक पुस्‍तकों के संस्‍करण के विमोचन हेतु एक प्रतिष्ठित कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस अवसर पर तीन पुस्तकों, 'रामायण कथा की विश्व-यात्रा', 'हमारी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता' और 'पूर्वजों की पुण्यभूमि' का औपचारिक लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम में इस पुस्‍तकों की विषयवस्तु पर गहन चर्चा की गई। विद्वानों ने कहा कि इन कृतियों का भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद पर गहन विमर्श में एक महत्वपूर्ण योगदान है। इन तीन पुस्‍तकों का प्रकाशन मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशक द्वारा किया गया है।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जूना पीठ के प्रमुख आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि थे और कार्यक्रम की अध्यक्षता आईजीएनसीए ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री राम बहादुर राय ने की। ध्‍यानार्थ है कि स्वामी अवधेशानंद गिरि जी ने तीनों पुस्तकों की प्रस्तावना भी लिखी है। अन्य विशिष्ट वक्ताओं में राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण की पूर्व अध्यक्ष और आईसीएचआर की सदस्य प्रो. सुष्मिता पांडे; कला निधि प्रभाग के प्रमुख और आईजीएनसीए के डीन (प्रशासन) प्रो. रमेश चंद्र गौड़ और दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व संकाय सदस्य डॉ. शशि तिवारी शामिल थे। वक्ताओं ने कहा कि ये रचनाएं भारतीय ज्ञान प्रणालियों, सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय एकता के संरक्षण में उल्लेखनीय योगदान देती हैं। कार्यक्रम का शुभारंभ शंख की शुभ ध्वनि और वैदिक मंगलाचरण के साथ हुआ, इसके पश्‍चात प्रो. रमेश चंद्र गौड़ ने स्वागत भाषण दिया और अतिथियों का परिचय कराया।

अपने मुख्य संबोधन में आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि ने कहा कि रामायण इतिहास है। भारत में दो ग्रंथ ऐतिहासिक माने जाते हैं- रामायण और महाभारत। हमारी परंपरा में, इतिहास न तो कोई 'वाद' है और न ही कोई मिथक। 'मिथक' या 'मिथकवाद' जैसे शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द हैं। 'वाद' का अर्थ है कुछ अटकलें, सत्य नहीं, काल्पनिक और शायद अतीत में कभी अस्तित्व में न रही—एक मात्र धारणा। उन्‍होंने कहा कि इसी प्रकार मिथक सत्य का बोध नहीं कराता। हमारी संस्कृति पौराणिक कथा नहीं है; यह सत्य है, शाश्वत है और इसका मूल ऋग्वेद में निहित है। उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति सनातन है। यह लोकतांत्रिक मूल्यों, संवाद, गणित, विज्ञान, अंक, शून्य और दशमलव प्रणाली का मूल है। यह विमर्श केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं है; यह भारतीय जीवन दर्शन का उद्घोष है। डॉ. विनोद तिवारी ने इस संबंध में असाधारण कार्य किया है।

अपने अध्यक्षीय संबोधन में श्री राम बहादुर राय ने स्वामी अवधेशानंद गिरि द्वारा लिखित इन पुस्तकों की प्रस्तावना का उल्लेख करते हुए कहा कि रामायण भारतीय संस्कृति को उसके सबसे उत्कृष्ट रूप में अभिव्यक्त करती है। रामायण भारतीय संस्कृति को मूल रूप जानने का साधन है। उन्‍होंने कहा कि एक बार किसी ने पंडित रामकिंकर उपाध्याय से पूछा, ‘गीता पर सबसे अच्छी व्याख्या कौन सी है?’ उन्‍होंने कहा कि वह यहां गीता का उल्लेख इसलिए कर रहे हैं क्योंकि स्वामी जी ने हमें वेदों से जोड़ा है, जो कि मूल हैं। और जब आप वेदों से जुड़ेंगे, तो आप 2025 को और भी स्पष्ट रूप से समझ पाएंगे। रामकिंकर जी ने कहा, ‘मेरे विचार से गीता पर सबसे अच्छी व्याख्या रामचरितमानस है।’ लोकमान्य तिलक ने गीता पर अपनी व्याख्या, ‘गीता रहस्य’, मंडाले जेल में लिखी, जिसका हिंदी अनुवाद 1915 में तिलक के शिष्य और पत्रकार माधवराव सप्रे ने किया था। गीता जो कुछ भी कहती है, उसका विस्तार से वर्णन ‘गीता रहस्य’ में किया गया है। उन्होंने कहा कि श्री अरबिंदो ने गीता रहस्य की प्रशंसा की थी। तिलक के निधन के बाद महात्मा गांधी ने बनारस, कानपुर और पुणे में अपने सम्‍भाषण में कहा था कि गीता पर इससे बड़ा कोई शोध तब तक नहीं हुआ था। उन्हें तो यहां तक संदेह था कि भविष्य में ऐसा कभी होगा भी या नहीं। उन्‍होंने श्री विनोद तिवारी जी से अनुरोध किया कि तिलक महाराज की गीता को भी ऐसी ही सुगम भाषा में प्रस्तुत करें। उन्‍होंने इन तीन उल्लेखनीय पुस्तकों के लिए विनोद जी को बधाई भी दी।

पुस्तकों का परिचय देते हुए डॉ. विनोद कुमार तिवारी ने दक्षिण-पूर्व एशिया में रामायण परंपरा के प्रसार के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि रामायण भारतीय संस्कृति का प्रतीक है और संस्कृत न केवल विज्ञान की भाषा है, बल्कि गणित की भी भाषा है। रामायण के वैश्विक प्रभाव का उल्‍लेख करते हुए उन्होंने बताया कि इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता का मूल नाम अयोध्याकर्ता था, जो बाद में जकार्ता में परिवर्तित हो गया।

प्रोफ़ेसर सुष्मिता पांडे ने कहा कि रामायण कथा की विश्व-यात्रा पुस्तक डॉ. विनोद तिवारी की दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया पर व्यापक चर्चा के लिए विशिष्ट है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह उनके अभिनव दृष्टिकोण के लिए उल्लेखनीय है कि गिरमिटिया के नाम से जाने-जाने वाले कैरिबियाई द्वीपों में भारतीय मूल के लोगों  ने किस प्रकार से विषम परिस्थितियों  के बावजूद रामायण का प्रचार करने में सफलता प्राप्‍त की। उन्होंने कहा कि यह प्रयास वास्तव में अग्रणी है। उनके अनुसार, संस्कृति मूलतः आध्यात्मिक चेतना का एक रूप है, जो प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त होती है, और यह रामायण में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। उन्होंने कहा कि संस्कृति और रामायण के बीच गहरा संबंध है। दक्षिण-पूर्व एशिया का उल्लेख करते हुए, उन्होंने इस क्षेत्र के भारत के साथ प्राचीन संबंधों पर बल दिया। पुरातत्वविद् आई.के. शर्मा ने बताया है कि यह संबंध तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक जाते हैं, जैसा कि चीनी मिट्टी की वस्तुओं पर भारतीय प्रतीकों और लौह युग के दफन स्थलों में भारत से कांच और पत्थर के मोतियों की उपस्थिति से प्रमाणित होता है। गुप्त काल के दौरान ये संबंध और भी दृढ़ हो गए।

डॉ. शशि तिवारी ने कहा कि तीनों पुस्तकें अत्यंत उपयोगी, रोचक और ज्ञानवर्धक हैं, जिनमें विविध शैलियों में लिखे गए निबंध शामिल हैं। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीयता को परिभाषित करना सदैव एक चुनौतीपूर्ण कार्य माना गया है। कई विद्वानों ने प्रयास किया है, लेकिन कोई सटीक परिभाषा स्थापित नहीं हो पाई है। उदाहरण के लिए, कुछ विद्वानों का मानना ​​है कि एक राष्ट्र की परिभाषा एक ही जाति के लोगों के एक साथ रहने, एक ही धर्म के लोगों, या एक ही भाषा बोलने वालों से होती है। हालांकि, ये मानदंड भारत पर लागू नहीं हो सकते, क्योंकि यह अनेक जातियों, धर्मों और भाषाओं का घर है। इस संदर्भ में, उन्हें वासुदेव शरण अग्रवाल की पुस्तक "पृथ्वी-पुत्र" विशेष रूप से ज्ञानवर्धक लगी। इसका शीर्षक अथर्ववेद के एक मंत्र, "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः" (पृथ्वी मेरी माता है, मैं उसका पुत्र हूं) पर आधारित है। इस आधार पर, उन्होंने राष्ट्र को एक विशिष्ट भूभाग, उसके लोगों और उनकी संस्कृति के रूप में परिभाषित किया। लोगों की संस्कृतियां विविध हो सकती हैं, लेकिन यह उन्हें एक साथ जोड़ती है, एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का निर्माण करती है, जिसमें कोई बाधा नहीं होती। धर्म, विज्ञान, ज्ञान, दर्शन, कला, संगीत और साहित्य सभी संस्कृति के दायरे में आते हैं और पूरे इतिहास में भारत ने निरंतर एकता की इस भावना का अनुभव किया है।

अपने स्वागत भाषण में, प्रो. रमेश चंद्र गौड़ ने कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारत में 121 भाषाएं हैं जिनमें से प्रत्येक को दस हज़ार से ज़्यादा लोग बोलते हैं, फिर भी रामायण का उन सभी भाषाओं में अनुवाद नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि अगर ऐसे भारतीय ग्रंथों का हर भारतीय भाषा में अनुवाद नहीं किया गया, तो यह ज्ञान आम लोगों तक नहीं पहुंच पाएगा, जो कि समय की मांग है। उन्होंने अतिथियों, वक्ताओं और उपस्थित लोगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कार्यक्रम का समापन किया। आईजीएनसीए के समवेत सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में विद्वान, शोधकर्ता, छात्र और साहित्यप्रेमी उपस्थित थे।

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पीके/केसी/एसएस/एसएस

 


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