उप राष्ट्रपति सचिवालय
भारतीय ज्ञान प्रणाली (आईकेएस) पर प्रथम वार्षिक शैक्षिक सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में उपराष्ट्रपति के संबोधन का मूल पाठ
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10 JUL 2025 1:46PM by PIB Delhi
आज बहुत शुभ दिन है दो कारणों से, आज का आयोजन 'गुरु पूर्णिमा' पर है।
सभी को हार्दिक शुभकामनाएं!
यह भारतीय ज्ञान प्रणाली का एक पहलू है। मैं सभी मेरे गुरुजनों को प्रणाम करता हूं - मेरे माता-पिता, मेरे दादा-दादी, मेरे नाना-नानी, मेरे गुरुजन के स्वरूप थे, सभी को प्रणाम।
हमारे श्रोतागण गुरुजन की उपाधि के पात्र हैं। आप सभी को मेरा सादर नमन।
मित्रो, भारतीय ज्ञान प्रणाली पर प्रथम वार्षिक शैक्षिक सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। इस पहल की अगुवाई करने के लिए जेएनयू और थिक्षा को मेरी हार्दिक बधाई। यह एक अत्यंत आवश्यक पहल है और वर्तमान समय में अत्यंत प्रासंगिक है।
इस सम्मेलन के मूल में एक गहन सत्य निहित है, जो अखंडित और निर्विवाद है। भारत केवल एक राजनीतिक संरचना नहीं है, बल्कि उससे कहीं आगे है। इसका निर्माण 20वीं सदी के मध्य में नहीं हुआ था। यह एक सभ्यतागत सातत्य है—चेतना, जिज्ञासा और ज्ञान की एक बहती नदी जो सहस्राब्दियों से चली आ रही है, जैसा कि श्री सोनोवाल जी ने प्रतिबिम्बित किया।
मैं एक छोटी सी बात कहना चाहता हूं, मेरा संबोधन कोई मुख्य भाषण नहीं था। सोनोवाल जी ने मुख्य भाषण दिया था।
मित्रो, देश सदियों में जीते हैं। भारत युगों में फलता-फूलता है, युगों में जीता है। भारत वेदों और उपनिषदों के उच्चारण से श्वास लेता है, पाणिनि के जटिल सूत्रों के माध्यम से बोलता है, आर्यभट्ट की सटीकता से गणना करता है और कौटिल्य के विवेक, धैर्य तथा बुद्धिमत्ता से शासन करता है।
भारत इस ग्रह पर दुनिया में अद्वितीय है। भारत की गाथा मानवीय आकांक्षाओं की एक अखंड कथा है। ज्ञान, सद्भाव और उत्कृष्टता की आकांक्षा है। यूरोप के विश्वविद्यालयों के अस्तित्व में आने से बहुत पहले ही, भारतीय विश्वविद्यालयों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी। भारत में, बहुत पहले ही, शिक्षा के समृद्ध केंद्र स्थापित हो चुके थे।
हमारी प्राचीन भूमि बौद्धिक जीवन के उज्ज्वल केन्द्रों का आवास थी- तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी और ओदंतपुरी- ये ज्ञान के विशाल गढ़ थे।
उनके पुस्तकालय ज्ञान के विशाल सागर थे, जिनमें हज़ारों पांडुलिपियां समाहित थीं। ये वैश्विक विश्वविद्यालय थे जहां दूर-दूर से, कोरिया, चीन, तिब्बत और फ़ारस से जिज्ञासु आते थे। ये ऐसे स्थल थे जहां वैश्विक सोच ने भारत की भावना को अपनाया। वह समावेशिता जो कुछ लोग हमें सिखाने की कोशिश करते हैं, उन्हें हमसे सीखना चाहिए।
भारत ने सिर्फ़ शिक्षा ही नहीं दी, बल्कि स्वागत भी किया, बहस की, आदान-प्रदान किया और प्रेरणा भी दी। मैं, मैक्स मूलर के नए ब्रिटिश आईसीएस अधिकारियों को दिए गए व्याख्यान का एक उद्धरण पढ़ना चाहूंगा क्योंकि यह प्रासंगिक है, "अगर मुझसे पूछा जाए कि किस आकाश के नीचे मानव मन ने अपनी कुछ बेहतरीन प्रतिभाओं का पूर्णरूप से विकास किया है, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे गहराई से विचार किया है और उनमें से कुछ के ऐसे समाधान खोजे हैं जो प्लेटो और कांट का अध्ययन करने वालों के भी ध्यान देने योग्य हैं, तो मैं भारत की ओर इशारा करूंगा।
मित्रो, यह शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति मात्र थी, लेकिन फिर एक अंतराल आया—एक बेहद भयावह अंतराल। सभ्यता पर बर्बरता हावी हो गई। एक अनपढ़ तुर्क-अफ़ग़ान सेनापति, बख्तियार खिलजी ने शिक्षा के केंद्रों और ज्ञान के भण्डारों को तहस-नहस कर दिया और सदियों से कड़ी मेहनत से संचित ज्ञान के भंडार को मिटा दिया।
भारत पर इस्लामी आक्रमण ने भारतीय विद्या परंपरा की गौरवशाली यात्रा में पहला अंतराल उत्पन्न किया। समाहित और आत्मसात करने की बजाय, तिरस्कार और विनाश का दौर आया। ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने दूसरा अंतराल उत्पन्न किया, जब भारतीय ज्ञान प्रणाली को अवरुद्ध और विकृत किया गया। शिक्षा केंद्रों ने अपने उद्देश्य बदल दिए। दिशासूचक यंत्र को नियंत्रित किया गया। ध्रुव तारा बदल गया। ऋषियों और विद्वानों की बजाय, इसने क्लर्को और राजपुरुषों की संख्याबल में वृद्धि शुरू कर दी। ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरे बाबुओं की ज़रूरतों ने राष्ट्र के विचारकों की ज़रूरत को बदल दिया।
सहस्राब्दियों से हमारा गौरवशाली, अविभाज्य पहलू है। हमने सोचना, चिंतन करना, लिखना और दार्शनिक रूप से मनन करना बंद कर दिया। हम रटने, दोहराने और निगलने लगे। आलोचनात्मक सोच की जगह ग्रेड ने ले ली। महान भारतीय विद्या परंपरा और उससे जुड़ी संस्थाओं को व्यवस्थित रूप से नष्ट और भ्रष्ट कर दिया गया।
परिणामस्वरूप, हम एक ऐसी ज्ञान-व्यवस्था के उपभोक्ता बन गए जिसके रचयिता न तो भारत के थे और न ही उसकी आत्मा को समझते थे और न ही उनके मूल में हमारी कोई चिंता थी। औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों से ओतप्रोत सभ्यतागत आख्यान की एक नई परत हम पर बेतहाशा, निर्दयतापूर्वक थोपी गई और दुर्भाग्य से हमने ऐसा होने दिया। उनका उद्देश्य खोज नहीं, बल्कि प्रभुत्व स्थापित करना था। उनका विद्वत्ता श्रद्धा से नहीं, बल्कि कृपालुता से उपजी थी। उस विकृत दृष्टि से, भारत के गहन दर्शन अंधविश्वास में बदल गए। ये कितना उपहास! कितना असहनीय दर्द है।
पश्चिमी सिद्धांतों को सार्वभौमिक सत्य बताकर प्रचारित किया गया। सीधे शब्दों में कहें तो, असत्य को सत्य का जामा पहनाया गया। जबकि स्वदेशी अंतर्दृष्टि को आदिम अतीत के अवशेष बताकर खारिज कर दिया गया, यह कोई व्याख्या की त्रुटि नहीं थी। यह विलोपन और विनाश की वास्तुकला थी और इससे भी दुखद बात यह है कि यह चुनिंदा स्मृतियां आज़ादी के बाद भी जारी रहीं।
जो हमारी मूलभूत प्राथमिकता होनी चाहिए थी, वह तो रडार पर भी नहीं थी। आप अपने मूल मूल्यों से अनभिज्ञ कैसे हो सकते हैं? ठीक होने के बजाय, हमें वही पूर्वाग्रह विरासत में मिले जिन्हें उखाड़ फेंकने के लिए हमने संघर्ष किया था। मार्क्सवादी विकृति ने औपनिवेशिक विकृति का स्थान ले लिया!
मित्रो, आज भी, उन औपनिवेशिक ग़लत व्याख्याओं की छायाएं पाठ्य पुस्तकों के पाठ्यक्रम को आकार दे रही हैं। वे सम्मान की मांग कर रही हैं। उनके पक्ष में कई कहानियां हैं, जो गहन चिंतन और चिंता का विषय हैं, लेकिन मित्रो, आज का यह समागम एक भावुक दृष्टिकोण या हमारे स्वर्णिम काल की यादों से कहीं बढ़कर है। यह एक बड़ा बदलाव लाने वाला आयोजन है।
यहां तीन दिनों में उठाए गए कदम बहुत दूरगामी होंगे। मेरा दृढ़ विश्वास है कि यह सम्मेलन ऐतिहासिक भूल को सुधारने का एक गंभीर अकादमिक प्रयास है, जो हमारे लिए पीड़ादायक है, इसकी खरोंचें हमें प्रश्न करने, जांचने, आलोचना करने और पुनः खोजने के लिए प्रेरित करती हैं। अब समय आ गया है कि हम उधार ली गई कहानियों और विरासत में मिली विकृतियों की बेड़ियां तोड़ दें। अपनी बौद्धिक संप्रभुता को पुनः प्राप्त करने का समय आ गया है। मित्रो, यह कठिन और धैर्यपूर्ण विद्वत्तापूर्ण अध्ययन के माध्यम से ही संभव होगा। हमें अनुवादकों, शोधकर्ताओं, पीएचडी धारकों, पोस्ट-डॉक्टरेट धारकों, प्रोफेसरों, विश्लेषकों, भाषाविदों, मॉडलर्स आदि की एक पूरी सेना की आवश्यकता होगी।
परंपरा और आधुनिकता के बीच जो अंतराल अक्सर देखी जाता है, उसे पाटने की ज़रूरत बढ़ती जा रही है। यह खाई बनावटी और बौद्धिक रूप से अकर्मण्य है। अतीत का ज्ञान नवाचार में बाधा नहीं डालता, बल्कि उसे प्रेरित करता है। आध्यात्मिकता भौतिकता से संवाद कर सकती है, आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि वैज्ञानिक सटीकता के साथ सह-अस्तित्व में रह सकती है, लेकिन फिर आपको यह जानना होगा कि आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि क्या है। ऋग्वेद में ब्रह्मांड के लिए लिखे गए मंत्र खगोल भौतिकी के युग में नई प्रासंगिकता पा सकते हैं।
चरक संहिता को जन स्वास्थ्य नैतिकता पर वैश्विक वाद-विवाद के साथ पढ़ा जा सकता है। जैसे-जैसे हम एक खंडित विश्व में आगे बढ़ रहे हैं, हम वैश्विक अस्थिरता से स्तब्ध हैं, इसलिए हमारा सामना एक खंडित विश्व से होता है, ज्ञान प्रणालियां जो मन और पदार्थ, व्यक्ति और ब्रह्मांड के बीच के अंतर्संबंध पर लंबे समय से प्रतिबिंबित होती रही हैं। विचारशील और स्थायी प्रतिक्रियाओं को आकार देने के लिए कर्तव्य और परिणाम प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह वैश्विक समुदाय के लाभ के लिए केवल इसी भूमि से ही निकल सकता है।
भारत को केवल वैश्विक आख्यानों का आयात नहीं करना चाहिए। हमें यह सोचकर ऐसा करना चाहिए कि वे मूल्यवान हैं। उसे उन्हें आकार देने में योगदान देना चाहिए और यह तभी संभव है जब हम एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाएं जो हमारी अपनी परंपराओं को महत्व दे और उनका गहन अध्ययन करे।
इसके लिए, मित्रो, हमें जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों को अग्रणी भूमिका निभानी होगी। आपको इस महान बौद्धिक पुनर्जीवन की प्रयोगशालाएं बनना होगा। आपको ऐसे स्थान बनाने होंगे जहां इतिहासकार, कोडर्स के साथ, संस्कृतज्ञ, जीवविज्ञानियों के साथ और नीतिशास्त्री, अभियंताओं के साथ मिलकर काम करें। यह सम्मेलन उस पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण में एक महत्वपूर्ण कदम है।
इसलिए, आइए हम अपना ध्यान ठोस कार्रवाई की ओर मोड़ें। शास्त्रीय भारतीय ग्रंथों के डिजिटल संग्रहों का निर्माण एक अत्यावश्यक प्राथमिकता है—जिसमें संस्कृत, तमिल, पाली और प्राकृत जैसी सभी शास्त्रीय भाषाएं शामिल हों। इन संग्रहों को व्यापक रूप से सुलभ बनाया जाना चाहिए ताकि भारत के विद्वान और दुनिया भर के शोधकर्ता इन स्रोतों से सार्थक रूप से जुड़ सकें। प्रशिक्षण कार्यक्रमों का विकास भी उतना ही आवश्यक है जो युवा विद्वानों को सशक्त पद्धतिगत उपकरणों से सशक्त बनाएं—भाषाविज्ञान, संगणनात्मक विश्लेषण, नृवंशविज्ञान और तुलनात्मक अन्वेषण का सम्मिश्रण, ताकि भारतीय ज्ञान प्रणालियों के साथ उनका जुड़ाव गहरा हो सके।
मित्रो, हमेशा याद रखें, ज्ञान पांडुलिपियों से परे रहता है। यह समुदायों में, मूर्त प्रथाओं में, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान के हस्तांतरण में रहता है। एक सच्चे भारतीय ज्ञान प्रणाली अनुसंधान पारिस्थितिकी तंत्र को लिखित शब्द और जीवंत अनुभव, दोनों को यह स्वीकार करते हुए सम्मान करना चाहिए कि अंतर्दृष्टि संदर्भ और पाठ दोनों से उभरती है।
मित्रो, यह प्रयास केवल भारत तक ही सीमित नहीं रह सकता। अब समय आ गया है कि भारतीय ज्ञान की गहराई को कम किए बिना उसका वैश्वीकरण किया जाए। हमारी ज्ञान परंपराएं सदियों पहले ही दुनिया के तटों तक पहुंच चुकी थीं। अंकोर वाट के प्राचीन और विशाल शिखरों से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया में रामायण के विशुद्ध प्रदर्शन तक, भारतीय ज्ञान प्रणालियां दुनिया भर के प्रमुख स्थानों से निरंतर प्रसारित हो रही हैं। हमें उस विरासत को पुनः प्राप्त करना चाहिए। हमें भारत की जड़ों से जुड़े रहना चाहिए।
एक वैश्विक शक्ति के रूप में भारत के उदय के साथ-साथ उसकी बौद्धिक और सांस्कृतिक गंभीरता का भी विकास होना आवश्यक है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, इसके बिना उन्नति स्थायी नहीं है, इसके बिना उन्नति हमारी परंपराओं के अनुरूप नहीं है। किसी राष्ट्र की शक्ति उसके विचारों की मौलिकता, उसके मूल्यों की शाश्वतता और उसकी बौद्धिक परंपराओं की सरलता में निहित होती है। यही वह सौम्य शक्ति है जो स्थायी होती है और जिस विश्व में हम रहते हैं, उसमें सौम्य शक्ति ही शक्तिशाली है।
आईकेएस में निहित शक्ति परमाणु शक्ति से कम नहीं है। आईकेएस समकालीन चुनौतियों, जिनमें विघटनकारी प्रौद्योगिकियों से उत्पन्न चुनौतियां भी शामिल हैं, को अवसरों में बदलने का एक माध्यम है। आज भारत केवल एक क्षमतावान राष्ट्र नहीं है, बल्कि एक साहसी, आत्मविश्वासी और हाल के वर्षों में निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर है। यदि इसका समुचित उपयोग किया जाए तो आईकेएस सॉफ्ट डिप्लोमेसी कौशल को बढ़ावा दे सकता है।
भारत को पीछे हटने की ज़रूरत नहीं है। धरती पर कहीं से कोई न कोई आख्यान ज़रूर निकलेगा। कहीं और कुछ न कुछ अंशांकन हुआ है। भारत को बाहर से आने वाले आख्यानों और अंशांकनों से पीछे हटने की ज़रूरत नहीं है। हमारी राजनीति को ऐसी सुनियोजित कुटिल चालों का आसानी से शिकार न बनने के लिए वह स्थिति हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए।
हमारी ज्ञान प्रणालियां राष्ट्रवाद के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रतीक हैं। राष्ट्र सदैव प्रथम, यह वैकल्पिक नहीं है। यह एकमात्र विकल्प है।
वैश्विक संदर्भ में, पिछले कुछ वर्षों में उल्लेखनीय विकास के साथ, भारत सबसे आकांक्षी वैश्विक राष्ट्र के रूप में उभरा है। हमारे युवा लाभांश की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारतीय ज्ञान प्रणालियों को पूर्ण रूप से उन्मुक्त और उपयोग में लाने की आवश्यकता है। जलवायु संबंधी चिंता, नैतिक कृत्रिम बुद्धिमत्ता और मानसिक स्वास्थ्य संकटों के इस युग में, भारतीय ज्ञान प्रणालियां ऐसी अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं जिनकी आधुनिक रूपरेखाएं अभी दिखना शुरू ही कर रही हैं।
अंकोरवाट की प्रतिमाओं से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया में रामायण तक, यूरोप में योग से लेकर सिलिकॉन वैली में आयुर्वेद तक- भारतीय ज्ञान प्रणालियां हमारी सबसे लंबे समय से चलने वाली निरंतर कूटनीति रही हैं।
मित्रो, संस्कृत, तमिल और पाली भाषाओं में प्राचीन पांडुलिपियों के डिजिटलीकरण में निवेश करने का समय आ गया है ताकि ये विश्वव्यापी रूप से सुलभ हो सकें। यदि विश्व हमारे भारतीय ज्ञान संसाधन से पूरी तरह परिचित हो जाए, तो हमारी सॉफ्ट डिप्लोमेसी और भी धारदार हो जाएगी।
मित्रो, आज हम जिस यात्रा पर निकल रहे हैं, वह छोटी नहीं है। इसके लिए दशकों की मेहनत की ज़रूरत है। इसके लिए गंभीरता, प्रतिबद्धता और कल्पनाशीलता की ज़रूरत है, लेकिन इस सम्मेलन को उस यात्रा की शुरुआत का प्रतीक मानिए। मैं आत्मविश्वास और आशावाद से परिपूर्ण हूं।
नालंदा और तक्षशिला के प्रांगणों में जो ज्ञान का दीप कभी प्रज्वलित हुआ था, उसे यहां प्रवचनों के माध्यम से पुनः प्रज्वलित किया जाना चाहिए। विद्वानों और विद्यार्थियों, यह सुनिश्चित करना आपके हाथ में है कि भारतीय चिंतन की अगली पीढ़ी उपेक्षा के बोझ में दबी न रहे, बल्कि वैश्विक प्रासंगिकता के साथ खिले।
मैं इस नेक पहल के आयोजकों, कुलपति महोदय और आपके सहयोगी से जुड़े सभी लोगों की सराहना करता हूं। मैं इस पहल की अपार सफलता की कामना करता हूं। मैं कहूंगा कि हम हमेशा याद रखें: असतो मासद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय। हे सर्वशक्तिमान, हमें अंधकार से ज्ञान की ओर ले चलो! तीन दिवसीय चिंतन, तीन दिवसीय वाद-विवाद, प्रवचन, चर्चा और संवाद भारतीय ज्ञान प्रणालियों के पुनरुत्थान का आधार बनेंगे।
मित्रो, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हमारी भारतीय ज्ञान प्रणालियां अथाह समुद्र की तरह गहरी हैं।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
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एमजी/केसी/एसएस/वाईबी
(Release ID: 2143697)