उप राष्ट्रपति सचिवालय
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राजस्थान उच्च न्यायालय के प्लेटिनम जुबली समारोह में उपराष्ट्रपति के संबोधन के अंश

Posted On: 10 AUG 2024 2:56PM by PIB Delhi

किसी राष्ट्र की न्यायिक प्रणाली और उसकी कार्यक्षमता उसकी लोकतांत्रिक जीवंतता को परिभाषित करती है। एक स्वतंत्र मजबूत न्याय प्रणाली किसी भी शासन के लिए आवश्यक है क्योंकि यह जीवन की भी जीवन रेखा है।

उच्च न्यायालय और उसके मुख्य न्यायाधीश न्याय प्रदान करने के लिए रीढ़ की हड्डी की तरह हैं और किसी भी तरह की निर्बलता, धारणागत या अन्यथा, हमारे लोकतंत्र के स्तंभ के रूप में न्यायपालिका को कमजोर करेगी।

लोकतंत्र के तीन स्तंभ-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका निस्संदेह और संवैधानिक रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस आधार पर, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का ईमानदारी से पालन करने की आवश्यकता है।

हमारे पास इतिहास का ज्ञान और बुद्धिमत्ता से है, यह हजारों वर्षों के हमारे सभ्यतागत लोकाचार में गहराई से समाया हुआ है। किसी व्यक्ति या संस्था में सत्ता, अधिकार तभी अधिक उत्पादक होते हैं, जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग सीमाओं और नैतिकता तथा औचित्य के साथ छेड़छाड़ करने के परिणाम को जानते हैं।

मैं इन संस्थाओं का उल्लेख हमारे लोकतंत्र के तीन स्तंभों के रूप में कर रहा हूँ। यदि इन संस्थाओं को निर्बल किया गया, तो ये हमारी लोकतंत्र को खतरे में डाल देंगी और इस प्रकार हमारे विकास के मार्ग को पटरी से उतार देंगी। हमारे देश के खिलाफ शत्रुतापूर्ण ताकतें हैं, जो भीतर और बाहर से काम कर रही हैं, उनके पास घातक एजेंडा है, भयावह डिजाइन हैं, जिन्हें तुरंत पहचानना आसान नहीं है। हम इन तीनों संस्थाओं में से किसी में भी उनका स्वागत कर सकते हैं, बिना उनके वास्तविक इरादे को जाने, यह सोचकर कि वे हमारे शुभचिंतक हैं।

प्रतिष्ठित श्रोतागण, वास्तविकता इसके विपरीत है। मैं आपका ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहता हूँ और वे यह धारणा फैलाना चाहते हैं कि कुछ दिन पहले हमारे पड़ोस में जो हुआ, वह भारत में भी होने वाला है। यह बहुत चिंताजनक है।

इस देश का नागरिक संसद में रहते हुए कैसे ऐसा कर सकता है। इनमें से एक प्रतिष्ठित कानूनी बिरादरी से संबंधित है, जबकि दूसरे ने भारतीय विदेश सेवा में पर्याप्त अनुभव प्राप्त किया है। दोनों को शासन में महत्वपूर्ण पदों पर रहने का अवसर मिला है, क्योंकि मंत्री यह कहने में देर नहीं लगाते कि पड़ोस में जो हुआ, वह भारत में भी होगा।

सावधान रहें।

इन राष्ट्रविरोधी ताकतों के प्रचालन तंत्र में से एक और यह अब वे कहीं अधिक प्रचालित कर रहे हैं, वे हमारे मौलिक संवैधानिक संस्थानों के मंचों का उपयोग अपने कार्यों को छिपाने या वैध बनाने के लिए करते हैं।

ये ताकतें हमारे संस्थानों का शोषण करके ऐसी कथाएं फैलाती हैं जो न केवल राष्ट्रविरोधी हैं, बल्कि राष्ट्र के लोकतंत्र को पटरी से उतारने का लक्ष्य रखती हैं।

आइए हम एक नजरिए से देखें, जहां हम हमेशा अपने राष्ट्र को पहले देखते हैं। राष्ट्रीय हित को मापा नहीं जा सकता, यह सर्वोच्च प्राथमिकता है, एकमात्र प्राथमिकता है और हम किसी भी चीज़ से पहले राष्ट्र को पहले रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

आइए हम अपने संस्थानों को इन अपवित्र इरादों से बचाने के लिए काम करें जो हमारे लोकतंत्र को नष्ट करना चाहते हैं और अगर वे कुछ पैठ बनाने में कामयाब हो जाते हैं, तो चुप न रहें, उन्हें बेअसर करें।

क्योंकि आपकी चुप्पी आने वाली पीढ़ियों के कानों में गूंजेगी और वे वही कहेंगे जो हमारे पूर्वज कर रहे थे। क्या वे मानसिक और अन्य रूप से इस अवसर पर खड़े नहीं हो सकते थे?

भारत को एक मजबूत स्वतंत्र न्यायपालिका को पोषित करने पर गर्व है जो हमेशा लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने और विकसित करने में सहायक रही है। एक कष्टदायी अपवाद के साथ, और हमें उस अपवाद को कभी नहीं भूलना चाहिए, और वह स्वतंत्रता के बाद हमारे इतिहास के सबसे क्रूर काले दौर के दौरान था- जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल।

सम्मानित श्रोतागण, हम न्यायपालिका की एक बहुत ही उच्च संस्था का हिस्सा हैं, लेकिन उस समय, नागरिकों के मूल अधिकारों के दुर्जेय गढ़ और शीर्ष पर आसीन न्यायपालिका, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के मनमाने तानाशाही शासन के आगे झुक गई।

और इसका क्या परिणाम हुआ? लाखों लोगों को सलाखों के पीछे डाल दिया गया, उन्हें अपमान सहना पड़ा। उनमें से कई इस देश के प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मंत्री बने और विभिन्न क्षेत्रों में योगदान दिया और योगदान देना जारी रखा। इस देश के किसी भी नागरिक के लिए उस काले दौर को भूलना बिल्कुल भी उचित नहीं होगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया और उसने क्या फैसला सुनाया? आपातकाल के दौरान कोई भी व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए न्यायालय में आवेदन नहीं कर सकता। आप सभी प्रतिष्ठित कानूनी बिरादरी के सदस्य हैं या आपमें से कुछ लोग इस पीठ का हिस्सा हैं।

यही निर्णय था। आपातकाल के दौरान कोई भी व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए न्यायालय में आवेदन नहीं कर सकता और आपातकाल तब तक चल सकता है जब तक सरकार चाहे।

एक व्यक्ति विशेष ने स्वतंत्रता को बंधक बना लिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया, देश भर में हजारों की संख्या में बिना किसी गलती के गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गलती केवल इतनी थी कि उनके हृदय में राष्ट्रवाद था, उनकी भारत माता में आस्था थी!

न्यायिक मदद लेने से रोके जाने की तुलना में  ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने देश के 9 उच्च न्यायालयों के फैसलों को पलट दिया, और 9 उच्च न्यायालयों की उस प्रतिष्ठित सूची में, यह न्यायालय भी शामिल है। मुझे वास्तव में इस संस्था का हिस्सा होने पर गर्व है। आपातकाल के दौरान, इस संस्था ने अपनी मर्यादा बनाए रखी।

राजस्थान के न्यायिक उच्च न्यायालय को देश के उन नौ उच्च न्यायालयों में से एक होने का गौरव प्राप्त है, जिन्होंने आपातकाल लागू होने के बावजूद यह साबित किया कि उसकी हिरासत, गिरफ्तारी कानून के नियमों के अनुपालन में नहीं थी।

युवा लोगों को इसके बारे में जानकारी नहीं है। यह सुनिश्चित करें कि किसी भी उम्र का हर भारतीय, विशेष रूप से संवेदनशील दिमाग, इन घटनाक्रमों को पूरी तरह से जान लें।

शाश्वत सतर्कता स्वतंत्रता की कीमत है। यह सतर्कता इस बात से निर्धारित होनी चाहिए कि आप इस देश में लाखों लोगों की पीड़ा के बारे में गहराई से जानते हैं, जो एक व्यक्ति, भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के क्रूर दौर में हुई थी।

एक पल के लिए कल्पना करें, अगर उच्चतम स्तर पर न्यायपालिका ने घुटने नहीं टेके होते, असंवैधानिक तंत्रों के आगे नहीं झुकी होती, श्रीमती इंदिरा गांधी की उस तानाशाही के आगे कमजोर नहीं पड़ी होती, तो आपातकाल की स्थिति नहीं आती। हमारा राष्ट्र बहुत पहले ही अधिक विकास प्राप्त कर चुका होता। हमें दशकों तक इंतजार नहीं करना पड़ता।

इसी तरह, इस वर्ष सरकार 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने जा रही है, ताकि यह स्‍मरण दिलाया जा सके कि जब भारत के संविधान को मंत्रिपरिषद ने नहीं बल्कि एक व्यक्ति ने लापरवाही से रौंद दिया था, तो संविधान के किसी भी हिस्से का पालन नहीं किया गया था।

हमारे संविधान में सभी संस्थाओं की भूमिका को अच्छी तरह से वर्णित किया गया है। विधायिका की भूमिका क्या है, यह सभी जानते हैं। न्यायपालिका की भूमिका क्या है? कार्यपालिका की भूमिका क्या है, यह हम सभी जानते हैं?

मैं हल्के-फुल्के अंदाज में कहना चाहता हूँ। विधानमंडल और संसद निर्णय नहीं लिख सकते। संसद में बैठे हम या विधानमंडल में बैठे लोगों को न्यायिक निर्णय लिखने का कोई अधिकार नहीं है। इसी तरह, मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि न्यायपालिका कानून नहीं बना सकती, कानून नहीं बना सकती या ऐसे निर्देश नहीं दे सकती जो विधानों से परे हों।

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एमजी/एआर/एसकेजे/एमबी


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