उप राष्ट्रपति सचिवालय
विज्ञान भवन में आयोजित संविधान दिवस समारोह में उपराष्ट्रपति के संबोधन के अंश
प्रविष्टि तिथि:
26 NOV 2023 8:12PM by PIB Delhi
संसद लोगों की इच्छा को प्रतिबिंबित करती है। जो लोग संसद में बैठते हैं, वे इसलिए वहाँ होते हैं, क्योंकि एक उचित मंच पर एक वैध व्यवस्था के माध्यम से लोगों ने अपना जनादेश व्यक्त किया है। इसलिए संसद लोकतंत्र की आत्मा है, जो लोगों की मनोदशा, उनके विचार को प्रामाणिक रूप से प्रतिबिंबित करती है। संविधान की संरचना के रूप में संसद की सर्वोच्चता निर्विवाद है। यह अपने कार्य में कार्यपालिका या न्यायपालिका के हस्तक्षेप के प्रति उत्तरदायी नहीं है।
संसद की संप्रभुता राष्ट्र की संप्रभुता का पर्याय है और वह अभेद्य है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? कार्यपालिका तभी बनी रह सकती है, जब संसद में उसकी ताकत हो। मैं ज़ोर से बोलना नहीं चाहता; लेकिन दूसरी संस्थाएं भी तभी जीवित रहती है, जब उसे संसद द्वारा मंजूरी दी जाती है। इसलिए, ऐसी संस्था, जिसकी आधारशिला लोगों का जनादेश पर आधारित है, अपने क्षेत्र में किसी भी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दे सकती। यह लोकतंत्र में शासन के नाजुक तंत्र को अव्यवस्थित करने वाला सिद्ध होगा। मित्रों, संसद के विशिष्ट प्रक्षेत्र में कोई भी हस्तक्षेप लोकतांत्रिक सार और मूल्यों के प्रतिकूल होने के अलावा संवैधानिक उल्लंघन भी होगा।
जब राज्य के अंग -कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका- सद्भाव, तालमेल और एकजुटता से काम करते हैं, तो लोकतंत्र का सर्वोत्तम पोषण होता है। कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के लिए अच्छी तरह से परिभाषित संवैधानिक प्रक्षेत्र हैं। यह संवैधानिक कार्यादेश है कि राज्य के ये सभी अंग अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करें। एक अंग की सत्ता का दूसरे अंग पर अधिकार जताना, संविधान निर्माताओं की सोच से परे था।
भारत, जो पूरी मानवता के 1/6 हिस्से का निवास-स्थान है, के निरंतर विकास को सुनिश्चित करने के लिए, मित्रों, यह अनिवार्य है, यह अपरिहार्य है और यह जरूरी है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका टकराव की धारणा के बजाय सहयोगात्मक संवेदना उत्पन्न करें।
उभरती चुनौतियों और तकनीकी हमलों को देखते हुए शासन को गतिशील होना चाहिए। मतभेद तो होंगे ही, मुद्दे भी होंगे। मुद्दों को सुलझाना होगा। हमारे जैसे देश में, जिसे पूरी दुनिया को रास्ता दिखाना है, विशेष रूप से इन तीन संस्थाओं के बीच दृष्टिकोण का सामंजस्य होना चाहिए।
यदि मतभेद हैं, जो अवश्यंभावी हैं, ऐसे मतभेद और उनका समाधान उत्कृष्ट रणनीतिक कौशल के द्वारा किया जाना चाहिए। ऐसे मतभेदों से निपटने की रणनीति के रूप में सार्वजनिक रूप से विचार रखने या धारणा पैदा करने से बचना ही बेहतर है।
मैं आपको आश्वस्त कर सकता हूं कि मैं न्यायपालिका का एक सिपाही हूं। मैं वकालत पेशे से हूं। देश के लाखों लोगों की तरह न्यायिक स्वतंत्रता मुझे भी बहुत प्रिय है। हम रीढ़ की हड्डी की तरह मजबूत न्यायपालिका चाहते हैं और मैं विरोधाभास के भय के बिना कह सकता हूं कि हमारी न्यायपालिका दुनिया के सर्वश्रेष्ठ में से एक है।
मैंने विभिन्न नवोन्वेषी कदमों की सराहना की है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता निर्विवाद है, लेकिन समय आ गया है कि हमें ऐसी संस्थाओं के शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच संरचना-आधारित बातचीत के लिए एक व्यवस्था बनानी चाहिए, ताकि मुद्दे सार्वजनिक स्तर पर न आएं।
मुझे यह जानकर खुशी हुई कि इन संस्थाओं की कमान संभालने वाले लोग राजनेता हैं, वे दूरदर्शी हैं, चाहे वे देश के प्रधानमंत्री हों, देश की राष्ट्रपति हों या भारत के मुख्य न्यायाधीश हों, हम भाग्यशाली हैं कि प्रतिष्ठित लोग इन संस्थानों का नेतृत्व कर रहे हैं। इसलिए, अवलोकन या अन्य किसी रूप में सार्वजनिक डोमेन में आने वाली कोई भी बात हमारे कानों के लिए सुखद नहीं होगी, जिसका अर्थ है, बड़े पैमाने पर यह लोगों के लिए सुखदायक नहीं होगा। मैं अपनी क्षमता के अनुसार ऐसी प्रणाली तैयार करने के लिए अपने तरीके से काम कर रहा हूं, क्योंकि इनमें से किसी भी संस्था के लोग शिकायतकर्ता नहीं हो सकते हैं, उन्हें शिकायतकर्ता नहीं होना चाहिए, उन्हें बड़े पैमाने पर लोगों के शिकायतों का समाधान करना है। मुझे यकीन है कि अच्छे दिन आने वाले हैं।
इस महत्वपूर्ण दिवस पर, मैं डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के ऋषि चिंतन का संदर्भ दूंगा: “संविधान का उद्देश्य न केवल संघ के तीन अंगों का निर्माण करने तक सीमित है, बल्कि उनकी शक्तियों की सीमाओं को परिभाषित करना भी है। यह आवश्यक भी है, क्योंकि यदि सीमाएं निर्धारित नहीं की गईं, तो संस्थाएं निरंकुश हो जाएंगी और शोषण करना शुरू कर देंगी। इसलिए, विधायिका को कोई भी कानून बनाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए, कार्यपालिका को कोई भी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय को कानूनों की व्याख्या करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए।” कानून और संविधान की व्याख्या प्रदान करने वाले संवैधानिक प्रावधान एक छोटी सी दरार है, यह बाढ़ का द्वार नहीं हो सकता, हमें इसके बारे में बेहद चिंतित होना होगा और मुझे यकीन है कि आसपास के लोगों में जिस तरह की प्रतिभा है और जिस तरह की राष्ट्रवाद की भावना है, वे इन मुद्दों से लड़ रहे हैं। समाधान निकाले जा रहे हैं और हम ऐसी स्थिति में होंगे, जिसमें हमारी संस्थाएं सद्भाव और एकजुटता के साथ कार्य करेंगी, ताकि हम अपने भारत को उच्चतम स्तर तक ले जा सकें।
उभरती चुनौतियों और प्रौद्योगिकी हमलों को देखते हुए, शासन को गतिशील होना चाहिए। मतभेद तो होंगे ही, मुद्दे भी होंगे। मुद्दों को सुलझाना होगा। हमारे देश में, जिसे पूरी दुनिया को रास्ता दिखाना है, विशेष रूप से इन तीन संस्थाओं के बीच दृष्टिकोण का सामंजस्य होना चाहिए।
यदि मतभेद हैं, जो अवश्यंभावी हैं, ऐसे मतभेद और उनका समाधान उत्कृष्ट रणनीतिक कौशल के द्वारा किया जाना चाहिए। ऐसे मतभेदों से निपटने की रणनीति के रूप में सार्वजनिक रूप से विचार रखने या धारणा पैदा करने से बचना ही बेहतर है।
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एमजी/एआर/जेके/एसएस
(रिलीज़ आईडी: 1980075)
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