उप राष्ट्रपति सचिवालय
उपराष्ट्रपति के भाषण का पाठ-आईआईपीए में द्वितीय डॉ. राजेंद्र प्रसाद स्मृति व्याख्यान
Posted On:
29 MAR 2023 6:54PM by PIB Delhi
द्वितीय डॉ. राजेंद्र प्रसाद स्मृति व्याख्यान देना वास्तव में एक सम्मान की बात है, एक तरह से यह एक सपने के सच होने जैसा है। डॉ साहब को देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में याद किया जाता है। लेकिन इससे अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण यह है कि वह संविधान सभा के अध्यक्ष थे। उस हैसियत से डॉ. साहब ने सर्वोच्च मानक स्थापित किए हैं जिनका सभी को अनुकरण करने की आवश्यकता है।
दोस्तों, जैसा कि आप जानते हैं कि संविधान सभा का सत्र तीन वर्षों तक चला और उन तीन वर्षों के दौरान दुनिया ने उच्चतम गुणवत्ता वाले विचार-विमर्श, चर्चाएं और बहस देखी। एक चीज जो उस परिदृश्य से गायब थी, वह था व्यवधान और अशांति। कुछ ऐसा जो वहां नहीं देखा गया था - टकराव।
राष्ट्रीय ख्याति के इस संस्थान के अध्यक्ष के रूप में मैं स्वीकार करता हूं और इसकी सराहना करता हूं कि आईआईपीए प्रशासन और विद्वता को एक साथ लाता है। इस अमृत काल में जब देश विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है, तब हमें प्रशासनिक तंत्र की सहायता के लिए विद्वानों की दूरदर्शिता की आवश्यकता है। सितंबर 2022 में भारत को दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का गौरव प्राप्त हुआ था और यह एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक उपलब्धि भी थी क्योंकि इस प्रक्रिया में हम अपने पूर्व औपनिवेशिक शासकों से आगे निकल गए थे।
हाल के वर्षों में नागरिक प्रशासन की रूपरेखा बदल गई है। यह सामाजिक रूप से अधिक समावेशी हो गया है।
पिछले 8-9 वर्षों में सत्ता के गलियारों में एक बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है सत्ता के मध्यस्थों से मुक्ति मिली है, उन लोगों से भी मुक्ति मिली है जो अतिरिक्त कानूनी माध्यमों से शासन प्रणाली का लाभ उठा सकते हैं और यह एक बड़ी उपलब्धि है जो हमारे शासन में प्रभावशाली रूप में प्रतिबिंबित हो रही है।
सुदूर गांवों से, आम परिवारों से, वंचित समुदायों से युवा प्रतिभाएं सिविल सेवाओं में शामिल हो रही हैं। मुझे प्रशिक्षुओं के साथ बातचीत करने का अवसर मिला है और खुद एक गांव से होने के नाते मैं बता सकता हूं कि शिक्षा का क्या अर्थ है और इसे प्राप्त करना कितना कठिन है, जब मैंने उन युवा प्रशिक्षुओं की पृष्ठभूमि को समझा... यह अवलोकन एक जमीनी सच्चाई है।
इन युवाओं ने गरीबी उन्मूलन और अपनी क्षमता का पूरा फायदा उठाने के अवसरों को बढ़ने में लोक प्रशासन की सकारात्मक भूमिका को करीब से देखा है। एक बड़ा बदलाव जो हुआ है, मैं अपने युवा साथियों को बता सकता हूं कि अब हमारे पास इकोसिस्टम का क्रमिक विकास है। सरकार की सकारात्मक नीतियों के लिए धन्यवाद। वे दिन गए जब वित्तीय सहायता न मिलने या सरकारी नीतियों के आड़े आने के कारण एक युवा अपने विचार को जमीन पर उतार नहीं पाता था।
यह देखकर भी खुशी होती है कि लोक प्रशासन की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार अधिक से अधिक प्रतिभाशाली युवतियां सिविल सेवाओं में शामिल हो रही हैं। यह सिर्फ सिविल सेवा तक ही सीमित नहीं है, रक्षा सहित जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति देखी जा रही है और उनके प्रदर्शन से पुरुषों को भी ईर्ष्या हो रही है।
आज भारत इतनी तेजी से आगे बढ़ रहा है जितना पहले कभी नहीं बढ़ा था। यह बढ़ती आकांक्षाओं और नवाचारों से प्रेरित है और जिसे हमारे नागरिकों की उपलब्धियों द्वारा मान्यता मिली है।
मित्रों, कुछ बदलाव शांत तरीके से हो रहे हैं। उदाहरण के लिए, स्मार्ट सिटी की अवधारणा, आप उस अंतर को महसूस करते हैं।
इन जिलों की पहचान करना, यहां लोगों का रहना एक चुनौती थी और जैसा कि माननीय प्रधान मंत्री ने एक बार कहा था, कोई भी ऐसे जिले का जिलाधिकारी नहीं बनना चाहता था। अब वे वहां रहना चाहते हैं क्योंकि वे कुछ खास करने के लिए प्रेरित हैं और बदलाव हो रहा है।
इसे वैश्विक नजरिए से देखें। हम अवसरों, नवाचारों और निवेश के पसंदीदा वैश्विक गंतव्य हैं। हमारे नब्बे हजार इनोवेटर्स स्टार्ट अप्स इस आश्चर्यजनक अभूतपूर्व सफलता में भागीदार हैं।
ऐसे में लोगों की उम्मीदें बढ़ने वाली हैं और उन्हें बढ़ना ही चाहिए। जैसे-जैसे नागरिकों की अपेक्षाएं और आवश्यकताएं विकास उपलब्धियों के मानदंडों के आधार पर बढ़ती और बदलती हैं, यह जानकर खुशी होती है कि सेवाओं को लोगों तक पहुंचाने की क्षमता और उनके संतुष्टि के स्तरों पर भी ठोस परिणाम दिख रहे हैं।.
कुछ साल पहले की बात करें तो भुगतान करने के लिए लंबी-लंबी कतारें हुआ करती थीं। हम उन्हें अब और नहीं देखते हैं। दुनिया भर में, हम एक ऐसा देश हैं, जिसने नागरिकों को और नागरिकों को ही नहीं असुरक्षित वर्गों को भी अभूतपूर्व प्रत्यक्ष हस्तांतरण किया है, चाहे वह किसान हों या आंगनवाड़ी में काम करने वाली महिलाएं हो और यह एक बड़ी उपलब्धि और बड़ी राहत है।
आज नए भारत का मंत्र है 'न्यूनतम सरकार, अधिकतम सुशासन'। 'जीवन में सुगमता' के बड़े उद्देश्य के साथ कार्यपालिका 'कारोबार में सुगमता' को सुलभ बना रही है।
मैंने इसे खुद देखा है। पश्चिम बंगाल राज्य के राज्यपाल के रूप में, मैं कारोबार में सुगमता पर 10 राज्यपालों के एक समूह का नेतृत्व कर रहा था और हम गंभीर विचार-विमर्श के सत्रों में शामिल थे और यह जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है। लेकिन ये नीव से जुड़े, मौन विकास हैं जो हमें अत्यधिक प्रभावित करते हैं और जो हमारी कार्य क्षमता को बेहतर बनाने में हमारी सहायता करते हैं।
आगामी 25 साल देश के लिए महत्वपूर्ण होने जा रहे हैं, खासकर पिछले नौ सालों की वजह से। पिछले नौ वर्षों में हमने एक नींव रखी है, सकारात्मक कदमों की एक श्रृंखला, कि 2047 में जब देश आजादी की शताब्दी मना रहा होगा, तो हमें पहले नंबर पर होना है और मेरे युवा साथी 2047 के योद्धा होंगे। संभव है कि हम में से कुछ तब न हों, लेकिन हम सभी इस बात को लेकर बहुत आश्वस्त हैं कि जिस तरह का पारिस्थितिकी तंत्र विकसित हुआ है और जिस तरह की स्थिरता देखने को मिली है, इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत उस समय दुनिया में नंबर एक होगा।
शासन एक गतिशील अवधारणा है और लोक प्रशासकों को नागरिकों की बदलती अपेक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप बने रहना होगा।
क्योंकि हम वैश्विक मूल्य श्रृंखला के केंद्र बन गए हैं, आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की मांगों को पूरा करने के लिए, एक नई उद्यमशील संस्कृति को बढ़ावा देने और इनोवेशन स्टार्ट अप को मदद करने के लिए-आने वाले वर्षों में डिजिटल प्लेटफॉर्म, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बिग डेटा साइंस और इंटरनेट ऑफ थिंग्स जैसी उभरती प्रौद्योगिकियां लोक प्रशासन का एक अनिवार्य हिस्सा होंगी।
पिछले दो वर्षों में, कोविड के दौरान, हमने न केवल दवाओं, उपकरणों और टीकों के विकास और उत्पादन के लिए अपनी क्षमताओं को बढ़ाया, अस्पतालों और ऑक्सीजन संयंत्रों की स्थापना की, बल्कि हमने महामारी के प्रसार की निगरानी के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म भी विकसित किए और सभी नागरिकों को टीकाकरण के डिजिटल प्रमाण पत्र प्रदान किए।
सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक सुरक्षा समान रूप से, दक्षता के साथ और शीघ्र उपलब्ध कराई जाए। आपके पास पहले से अधिक मेडिकल कॉलेज, अधिक अस्पताल, अधिक डायग्नोस्टिक सेंटर, अधिक पैरा मेडिकल स्टाफ और नर्सिंग कॉलेज होंगे। स्वास्थ्य क्षेत्र के विकास की रफ्तार में एक समय ठहराव आ गया था। और जब महामारी ने हमें चुनौती दी तो यह वास्तव में नई ऊंचाई पाने में हमारे लिए सबसे बड़ी सहायता रही है।
हमें सही मायने में दुनिया का फार्मेसी कहा जाता है। मैं उसमें एक विशेषण जोड़ूंगा। हम दुनिया में सबसे प्रभावी फार्मेसी हैं, गुणवत्ता से समझौता किए बिना पैसे का सर्वोत्तम मूल्य देते हैं।
जब कोविड महामारी ने हमें चुनौती दी, तो हम अपनी सभ्यता से जुड़े लोकाचारों को नहीं भूले। हमने अपने टीकों को उपलब्ध कराकर 100 से अधिक देशों को मदद दी और उनमें से बहुत को मित्रवत भाव के रूप में ये मदद मिली। बहुत से लोग चिंतित थे कि क्या होगा, खासकर खाद्य सुरक्षा के संबंध में।
जबकि यह सब हो रहा है, दोस्तों मुझे एक बात साझा करने की आवश्यकता है और मैं खुद को आप सभी के साथ इस सम्मानित दर्शकों के सामने इस चिंताजनक प्रवृत्ति साझा करने से रोक नहीं सकता। हमें बदनाम करने के लिए भारत के मूल्यों, अखंडता और इसकी संस्थाओं पर एक तीव्र हमला हो रहा है जिसे सुव्यवस्थित तरीके से बढ़ावा दिया जा रहा है।
वैश्विक शक्ति के रूप में उभरते हुए भारत के खिलाफ एक पारिस्थितिकी तंत्र को आकार और पोषण दिया जा रहा है।
एक राष्ट्र के रूप में भारत की वैधता और इसके संविधान पर हमला करना कुछ बाहरी संस्थानों का पसंदीदा विषय है।
देश के उद्योगपतियों के लिए मेरे मन में एक सम्मान का भाव है, वे देश के विकास में योगदान दे रहे हैं। लेकिन कभी-कभी सबसे अच्छे दिमाग वालों को भी सावधान रहने की जरूरत होती है।
भारत के कुछ अरबपति और बुद्धिजीवी परिणाम की परवाह किए बिना इन संस्थानों को वित्तपोषित करके इस तरह के विनाशकारी षडयंत्रों के शिकार हो गए हैं।.
यदि वे बाहर जाने के बजाय हमारे उत्कृष्ट आईआईटी और आईआईएम संस्थानों में वित्तीय योगदान करते तो उनकी उदारता का अधिक प्रभावी उपयोग किया जा सकता है। इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। वे ऐसा क्यों करते हैं?। एक व्यक्ति के रूप में मेरा दृढ़ विश्वास है कि सीएसआर फंड जो भी हो, उसका उपयोग देश के भीतर ही होना चाहिए। मैं आंकड़े नहीं देना चाहता लेकिन जब मुझे पता चलता है कि एक अरबपति द्वारा 200 करोड़ रुपये अमेरिका में एक संस्थान को दिए गए हैं या 2008 में खुद भारत सरकार ने 20 करोड़ दूसरे संस्थान को दिए, तो हमें अपनी सोचने के तरीकों पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है, हमें किसी और से प्रमाणन की आवश्यकता नहीं है। सबसे अच्छा सहयोग देश के भीतर हमारे अपने लोगों द्वारा ही होना चाहिए।
उद्योग और बुद्धिजीवियों में संभ्रांत वर्ग, मैं उनसे विचारशील होने की उत्कट अपील करता हूं। इसमें कोई आरोप का भाव नहीं है लेकिन सिर्फ सतर्कता है क्योंकि उनका इरादा निश्चित रूप से भारत के खिलाफ नहीं है।
भारत गणराज्य के पहले राष्ट्रपति, राजेंद्र बाबू संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में हमारे संविधान के निर्माण से निकटता से जुड़े थे। राज्यसभा के सभापति के रूप में, मैं उनसे जुड़ा हुआ महसूस करता हूं, उन्हें लगभग हर दिन याद करता हूं। उनमें कोई बहुत खास बात रही होगी कि उन्होंने संविधान सभा में विचार-विमर्श, संवाद, चर्चा और बहस के दौरान विवादित मुद्दों, विभाजनकारी मुद्दों को बाहर कर दिया । साथ ही कोई व्यवधान नहीं था।
मैं इस देश के राजनीती से जुड़े लोगों से अपील करता हूं। लोगों की बुद्धि को कभी कम मत आंकिए। वे सब जानते हैं कि क्या हो रहा है, वे बहुत समझदार हैं।
उनके लिए इससे ज्यादा चिंता की बात और क्या हो सकती है कि जब संसद में, जिसे चलाने में सरकारी खजाने से काफी पैसा लगता है लगातार कई दिनों तक काम नहीं होता है। यह बहुत कष्टकारी है। वे हमें जवाबदेह ठहराना चाहते हैं। ये कितना मिथ्याभास है कि वो अपने प्रतिनिधियों को सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए भेजते हैं और प्रतिनिधि उस समय किसी और विचार पर ध्यान दे रहे हैं।
किसी व्यक्ति के लिए संसद से बड़ी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कोई नहीं हो सकती। सांसदों को नागरिक और आपराधिक कार्रवाई से छूट प्रदान की जाती है।
मेरे स्मरण में 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपने समापन भाषण में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने एक टिप्पणी है, जो मुझे याद है कि भविष्यवाणी साबित हुई । उन्होंने कहा:
“संविधान एक मशीन की तरह बेजान है । यह उन लोगों के कारण जीवन प्राप्त करता है जो इसे नियंत्रित करते हैं और इसे संचालित करते हैं, और भारत को आज ईमानदार लोगों के एक समूह से ज्यादा कुछ नहीं चाहिए जो अपने हितों से आगे देश का हित रखेंगे।”
हमें अपनी स्वतंत्रता के इस अमृत काल में राजेंद्र बाबू की गंभीर टिप्पणियों की पृष्ठभूमि में एक ईमानदार मूल्यांकन करना चाहिए।
राज्य के तीनों अंग संविधान से वैधता प्राप्त करते हैं। यह उम्मीद की जाती है कि संविधान की प्रस्तावना में वर्णित संवैधानिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ये तीनों अंग एक सहयोगी तालमेल विकसित करेंगे।
संवैधानिक शासन इन तीनों अंगों के मध्य स्वस्थ परस्पर क्रिया में गतिशील संतुलन प्राप्त करने के बारे में है।
लेकिन इन सभी मुद्दों पर एक निर्धारित तरीके से संविधान की भावना को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिया जाना चाहिए, निश्चित रूप से टकराव के माध्यम से नहीं।
लोकतांत्रिक राजनीति मुख्य रूप से निर्वाचित विधायिका को कानून बनाने की शक्ति प्रदान करती है जो लोगों की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को दर्शाती है। मैं कभी भी संदेह में नहीं रहा, न तो राज्यसभा और न ही लोकसभा सर्वोच्च न्यायालय के किसी फैसले पर मतभेद कर सकती है यह संसद का काम नहीं है, यह न्यायपालिका का विशेष क्षेत्र है। इसी प्रकार, कार्यपालिका और विधायिका के लिए कुछ विशेष परिरक्षित विषय हैं। इन संस्थानों को अपने संबंधित क्षेत्रों का ईमानदारी से पालन करने की तत्काल आवश्यकता है।
जनता के जनादेश की प्रधानता है, यह जनता की इच्छा है जिसे मान दिया जाना है, जो उनके प्रतिनिधियों के माध्यम से एक वैध मंच पर परिलक्षित होता है, और मेरे अनुसार इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।
विधि निर्माण संसद का विशेषाधिकार है और किसी अन्य पक्ष के द्वारा इसका विश्लेषण, मूल्यांकन या हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। विधायिका के उद्देश्यों को कमजोर करने का कोई भी प्रयास एक ऐसी स्थिति उत्पन्न करेगा जो स्वस्थ नहीं होगी और नाजुक संतुलन को बिगाड़ देगी।
मैंने रचनात्मक संवाद के बारे में संकेत दिया था, लेकिन अब जब से हमने सार्वजनिक स्तरों पर देखा है कि वहां इन संस्थानों के शीर्ष पर बैठे लोगों से निकलने वाले विचारों का असर है, मैं अपील करूंगा कि एक निश्चित तंत्र के विकास पर गंभीर विचार हो। ताकि संस्थानों के शीर्ष पर बैठे लोग समय-समय पर अपनी विचार प्रक्रिया का आदान-प्रदान करने की स्थिति में रहें और इससे देश के लिए बहुत आवश्यक सौहार्द उत्पन्न होगा।
मैं एक उदाहरण के रूप में नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमेटी का संदर्भ दूंगा। संसद में सर्वसम्मति थी, लोकसभा ने इसके लिए वोट किया और इसमें कोई अनुपस्थिति नहीं रहा, वही राज्यसभा ने इसके लिए मतदान किया और सिर्फ एक सदस्य गैरहाजिर रहे। जैसा कि संवैधानिक रूप से आवश्यक है, 16 राज्य विधानसभाओं ने इसका समर्थन किया। देश के माननीय राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 111 के तहत अपने संवैधानिक अधिकार के तहत इस पर हस्ताक्षर किए और इसने संवैधानिक निर्देश का रूप ले लिया। मैं राज्यसभा के सभापति के रूप में आश्चर्य करता हूं, आगे क्या हुआ, कोई भी इसे हमारे पास वापस लेकर नहीं आया। मुझे विश्वास है कि आप जैसे संस्थान, देश के बुद्धिजीवी, इस ओर आपका ध्यान देंगे।
किसी भी बुनियादी ढांचे के आधार में कानून बनाने वाली संसद की सर्वोच्चता होना चाहिए... जिसका अर्थ है लोगों की सर्वोच्चता।
न्यायाधीशों के चयन में भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति के मुद्दे के संबंध में, जब हमें यह संविधान डॉ राजेंद्र बाबू की अध्यक्षता वाली ऐसी शानदार संविधान सभा द्वारा दिया गया था, तो संवैधानिक निर्देश परामर्श का था। न्यायिक आदेश से, यह परामर्श सहमति बन गया।हमारे संविधान का अनुच्छेद 370 एक ऐसा अनुच्छेद है जो परामर्श और सहमति दोनों शब्द का उपयोग करता है, शब्दकोष में इन शब्दों के अर्थों से अलग परामर्श और सहमति के बीच एक मूलभूत अंतर है। न्यायपालिका ने कहा कि परामर्श ही सहमति होगी। उस पर मुझे याद आता है कि डॉ. अंबेडकर ने 24 मई 1949 को संविधान सभा में इस तरह के सुझाव का कड़ा विरोध किया था:
“मुख्य न्यायाधीश की सहमति के सवाल के संबंध में, मुझे ऐसा लगता है कि जो लोग उस प्रस्ताव की वकालत करते हैं, वे मुख्य न्यायाधीश की निष्पक्षता और उनके फैसले की मजबूती दोनों पर ही भरोसा करते हैं। मुझे व्यक्तिगत रूप से कोई संदेह नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश एक बहुत ही प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं (... और इस समय हमारे साथ एक है। त्रुटिहीन साख वाले व्यक्ति। महान शिक्षा प्राप्त व्यक्ति ... राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर)। लेकिन आखिरकार मुख्य न्यायाधीश एक ऐसा व्यक्ति हो सकता जिसमें सभी कमियां, सभी भावनाएं और सभी पूर्वाग्रह हैं जो हम आम लोगों के पास होते हैं; और मुझे लगता है, न्यायाधीशों की नियुक्ति पर मुख्य न्यायाधीश को व्यावहारिक रूप से वीटो की अनुमति देना वास्तव में मुख्य न्यायाधीश को अधिकार हस्तांतरित करना है, जिसके लिए हम, सरकार या राष्ट्रपति तैयार नहीं हैं। इसलिए, मुझे लगता है कि यह भी एक खतरनाक प्रस्ताव है।”
मित्रों, ऐसे भी लोग हैं जो हमारे देश में लोकतंत्र के फलने-फूलने में सहभागी नहीं हैं। जो अर्थव्यवस्था और विकास की गति को बढ़ाने की हमारी खुशी को साझा नहीं करते हैं, और इसलिए वे समस्या खड़ी करना चाहते हैं। और वे इसे सोशल मीडिया पर ले जाकर, लेख लिखकर और देश में और ज्यादातर देश के बाहर भी सेमिनार आयोजित करते हैं, जिसमें वे संस्थान भी शामिल हैं जिन्हें हमारे अरबपतियों द्वारा आर्थिक रूप से सहायता प्रदान की जाती है। और यह स्थिति होने के नाते, मैं आग्रह करूंगा, हमें अत्यधिक सतर्क रहना होगा क्योंकि, यदि हम समय पर कदम नहीं करते हैं और मौन बने रहते हैं, तो ... यहां तक कि मूक बहुमत को भी चुप करा दिया जाएगा और हम ऐसा करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं।
एक और पहलू जिस पर मैं चाहता हूं कि बुद्धिजीवी और आम लोग राजनीतिक इकोसिस्टम पर दबाव डालें- हमें सभी मुद्दों को राजनीतिक पक्षपात के साथ देखने की जरूरत नहीं है। उदाहरण के लिए हमारे न्यायिक निर्णयों को राजनीतिक या पक्षपातपूर्ण रुख के साथ नहीं देखा जा सकता है।
यह अनिवार्य है कि विधानमंडल के सदस्य अपने विधायी दायित्वों और पार्टी बाध्यताओं के बीच अंतर रखें। राजनीतिक रणनीति के हिस्से के रूप में लंबे समय तक व्यवधान और गड़बड़ी की सराहना नहीं की जा सकती। जो लोकतंत्र के सार के विपरीत है, जो हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है, वह राजनीतिक रणनीति कैसे हो सकती है।
हमारे विधायी निकायों को नेतृत्व प्रदान करना चाहिए, सार्वजनिक नीति के लिए वैचारिक रूपरेखा निर्धारित करनी चाहिए और समाज के व्यापक कल्याण के लिए लोक प्रशासन का मार्गदर्शन करना चाहिए।
और मैं सावधानी और चिंता की भावना के साथ कहता हूं, अगर लोकतंत्र के ये मंदिर - वो जगह जहां मुख्य रूप से चर्चा होनी चाहिए, अगर वे व्यवधान, अशांति के सामने झुकते हैं, तो आसपास के लोग इस खालीपन को भरने के लिए आगे आएंगे, इसलिए किसी भी सरकार या लोकतंत्र के लिए यह एक खतरनाक प्रवृत्ति होगी। हम जिन मुद्दों का सामना कर रहे हैं, उन्हें इन जगहों से बाहर निकालने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं होता, तो कोई और ये काम करेगा, और यह संविधान की भावना के अनुरूप नहीं होगा और हम स्वर्ग में मौजूद संस्थापकों पर अनावश्यक रूप से दबाव डालेंगे।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भारत को चलाने के लिए खुद से पहले देश में रुचि रखने वाले ईमानदार लोगों के एक समूह की अपेक्षा की थी। इस अमृत काल में मैं कामना करता हूं कि हम राजेंद्र बाबू की उदात्त इच्छाओं को पूरा करें।
यह जानकर प्रसन्नता होती है कि सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास की भावना से निर्देशित अधिक समावेशी विकास से शासन का मानवीय स्वरूप दिखाई दे रहा है।
मैं आपके प्रयासों के लिए शुभकामनाएं देता हूं।
जय हिन्द
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