उप राष्ट्रपति सचिवालय
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भारत को अब सपेरों का देश नहीं कहा जाता, बल्कि यह विश्व के सभी लोगों के लिए अपनी क्षमता से पूरे विश्व को आकर्षित कर रहा है-उपराष्ट्रपति


उपराष्ट्रपति ने धर्मांतरण को प्रभावित करने के उद्देश्य से सुनियोजित, वित्तीय रूप से समर्थित दुस्साहस पर चिंता जताई

हमारे देश में ऐसे किले हैं, जहां चुनाव के परिणाम हमेशा जनसांख्यिकीय अव्यवस्थाओं के कारण सीमित रह जाते हैं-उपराष्ट्रपति

संसद को संवाद, बहस, चर्चा और विचार-विमर्श का अभेद्य गढ़ होना चाहिए-उपराष्ट्रपति

उपराष्ट्रपति ने तिरुवनंतपुरम में चौथा पी. परमेश्वरन स्‍मृति व्याख्यान दिया

Posted On: 02 MAR 2025 2:56PM by PIB Delhi

उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ ने आज कहा कि, ‘‘भारत अब वादा करने वाला देश नहीं रह गया है। भारत पर अब सपेरों का देश होने का चिन्‍ह नहीं लगा है। भारत पूरी दुनिया को अपनी क्षमता से आकर्षित कर रहा है।’’

हाल के दशक में भारत के विकास पथ पर विचार करते हुए, श्री धनखड़ ने रेखांकित किया, ‘‘जन-केंद्रित नीतियों और पारदर्शी जवाबदेह शासन ने इकोसिस्‍टम को बढ़ावा दिया है... 1.4 बिलियन का राष्ट्र, ग्रामीण क्षेत्र में हुए परिवर्तनकारी बदलाव को देखिये। हर घर में शौचालय है, बिजली कनेक्शन है, पानी का कनेक्शन आने वाला है, गैस कनेक्शन है... कनेक्टिविटी, इंटरनेट और सड़क, रेल और स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र में सहायता करने वाली नीतियां हैं। ये हमारी विकास पथ को परिभाषित करते हैं।’’

उन्होंने जोर देकर कहा, ‘‘यह आर्थिक पुनर्जागरण, जो कुछ साल पहले कल्पना से परे, चिंतन से परे, सपनों से परे था, ने हमारे सनातन धर्म का सार, समावेशिता, गैर-भेदभावपूर्ण, एक समान, समान रूप से न्यायसंगत विकास के परिणाम और फल उत्पन्न किए हैं। किसी भी योग्यता, जाति, धर्म, जाति, रंग से परे प्रयास किया गया है कि लाभ अंतिम पंक्ति में रहने वाले लोगों तक पहुंचना चाहिए और यह बड़ी सफलता के साथ किया जा रहा है।’’

आज तिरुवनंतपुरम में ‘लोकतंत्र, जनसांख्यिकी, विकास और भारत का भविष्य’ विषय पर चौथा पी. परमेश्वरन स्मारक व्याख्यान देते हुए, श्री धनखड़ ने कहा, ‘‘[श्री पी. परमेश्वरन] भारतीय मूल्यों के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता, भारतीय लोकाचार की उनकी गहरी समझ और राष्ट्रीय एकता के लिए उनका अथक प्रयास पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा। एक आत्मनिर्भर भारत, सांस्कृतिक रूप से निहित और आध्यात्मिक रूप से जागृत भारत के लिए उनका दृष्टिकोण पूरे देश में गहराई से गूंजता है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘भारत के महानतम सपूतों में से एक की स्मृति में यह स्मारक व्याख्यान है। वे इस सदी में हिंदू विचार प्रक्रिया के अग्रणी विचारकों में से एक हैं। हम इस व्याख्यान के माध्यम से सामाजिक कार्य के लिए प्रतिबद्ध सबसे बेहतरीन बुद्धिजीवियों में से एक का सम्मान कर रहे हैं... एक सभ्यता को केवल एक मूलभूत विचार से ही जाना जाता है। क्या यह वास्तव में अपने महान सपूतों का सम्मान करती है? और पिछले कुछ वर्षों में यही विषय रहा है। हमारे भूले हुए नायक, गुमनाम नायक, या यूं कहें कि अदृश्य नायक, हमने उन्हें याद किया है।’’

अकार्बनिक जनसांख्यिकीय परिवर्तनों पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए, श्री धनखड़ ने कहा, जनसांख्यिकी मायने रखती है। जनसांख्यिकी को बहुसंख्यकवाद के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए। हम इन दो खेमों में विभाजित समाज नहीं बना सकते। लेकिन देवियों और सज्जनों, जब जनसांख्यिकी की बात आती है तो देश को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जनसांख्यिकीय विकास जैविक, स्वाभाविक और सुखदायक होना चाहिए। तभी यह अनेकता में एकता को दर्शाता है। लेकिन अगर जनसांख्यिकीय विविधताएं आभासी भूकंप की प्रकृति में लाई जाती हैं, तो चिंता का कारण है। अगर जनसांख्यिकीय घटक को बढ़ाने के इरादे से अकार्बनिक जनसांख्यिकीय विविधताएं होती हैं, तो हमें चिंतित होना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से किया जा रहा है। हम एक ऐसे चौराहे पर हैं जहां हम इस अत्यधिक अस्थिर विकास को न तो अनदेखा कर सकते हैं और न ही इसका समर्थन कर सकते हैं। हमें बेहद सतर्क रहना होगा। भारत की प्राचीन जनसांख्यिकीय पवित्रता को बनाए रखने के लिए सभी को एकजुट होना होगा।

उन्होंने कहा, ‘‘अभी देश में चुनावी दृष्टिकोण से ऐसे क्षेत्र हैं, जहां चुनाव का कोई मतलब नहीं है। देश में पिछले कुछ वर्षों में ऐसे किले बने हैं, जहां चुनाव के नतीजे हमेशा जनसांख्यिकीय अव्यवस्थाओं के कारण प्रभावित होते हैं। इन चुनौतियों का समाधान करना, जो बहुत कठिन हैं, केवल नीतिगत हस्तक्षेप पर्याप्त नहीं हैं। हमें इन चुनौतियों को हमारे राष्ट्रवाद और हमारे लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए समझना और पहचानना होगा... कोई देश लाखों अवैध प्रवासियों को कैसे झेल सकता है? उनकी संख्या देखें। वे इस देश के लिए कितना खतरा लेकर आए हैं, इसे देखें। इस देश में हर व्यक्ति राष्ट्रवाद के जोश से भरा हुआ है। ये लोग आते हैं, हमारे रोजगार, हमारे स्वास्थ्य, हमारे शिक्षा क्षेत्रों पर मांग करते हैं और फिर चुनावी राजनीति में एक कारक बन जाते हैं। यह बहुत जरूरी है। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। हम एक मुश्किल स्थिति में हैं। हमें जागरूकता पैदा करनी चाहिए। लोगों की मानसिकता को सक्रिय करना चाहिए। हर भारतीय को इस चुनौती का सामना करने के लिए कुशल होना चाहिए। अनियंत्रित प्रवाह हमारी संस्कृति को भी खतरे में डाल रहा है। मैं आग्रह करूंगा कि हमें इन जनसांख्यिकीय अव्यवस्थाओं को साहसपूर्वक विफल करना चाहिए।’’

धर्मांतरण की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘चुनौती विभिन्न रूपों में आ रही है: एक है लालच, प्रलोभन, जरूरतमंदों और कमजोरों तक पहुंचना, सहायता प्रदान करना, और फिर एक सूक्ष्म तरीके से धर्म परिवर्तन का सुझाव देना, जिसे धर्मांतरण कहा जाता है। देश सभी को अपनी पसंद का धर्म रखने की अनुमति देता है, यह हमारा मौलिक अधिकार है, यह हमें हमारी सभ्यतागत संपदा से मिला है लेकिन अगर इसमें छेड़छाड़ की जाती है, इसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है, तो इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता... लालच और प्रलोभन इसके लिए आधार नहीं हो सकते। जब कोई दर्द में हो, कठिनाई में हो, जरूरत में हो, तो उनकी मदद करते हुए उन्हें धर्मांतरण की ओर न खींचें, यह असहनीय है। चाहे मैं कितनी भी कोशिश करूं, मैं चिंता की गंभीरता को व्यक्त नहीं कर पाऊंगा, हम धर्मांतरण को प्रभावित करने के उद्देश्य से इन रणनीतिक, सुनियोजित, आर्थिक रूप से समर्थित दुस्साहसों के कारण चुनौती का सामना कर रहे हैं।’’

देश में राजनीतिक रूप से विभाजनकारी माहौल पर विचार करते हुए, उपराष्ट्रपति ने कहा, ‘‘हम कुछ पहलुओं पर चिंताजनक परिदृश्यों से घिरे हुए हैं। राजनीति केन्‍द्रीकृत हो गई है, उपरोक्‍त रूप से विभाजनकारी है, तापमान हमेशा उच्च रहता है। मूल राष्ट्रीय मूल्य और सभ्यतागत मूल्य केंद्रीय विषय नहीं हैं। इस देश में जहां विविधता एकता में परिलक्षित होती है, यह देश जो समावेशिता के अपने सनातन मूल्यों पर गर्व करता है, हम इन मूल मूल्यों से दूर होने और ध्रुवीकृत, विभाजनकारी गतिविधियों में शामिल होने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं... जैसे-जैसे सार्थक संवाद धीमा पड़ता है, वैसे-वैसे सहयोग, सहभागिता और आम सहमति के स्तंभ भी धीमे होते जाते हैं।’’

संवाद और विचार-विमर्श के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मुझे आपके साथ अपनी पीड़ा, अपना दर्द साझा करना चाहिए। संसद को लोगों के लिए आदर्श होना चाहिए। यह लोगों की आकांक्षाओं को वास्तविकता में बदलने का एक मंच है। इसे संवाद, बहस, चर्चा और विचार-विमर्श का अभेद्य गढ़ होना चाहिए और इन पहलुओं का उदाहरण संविधान सभा ने दिया था जिसने 18 सत्रों में लगभग तीन साल तक काम किया था। और आज हम क्या देख रहे हैं? संवाद, विचार-विमर्श और अन्य चीजें अशांति और व्यवधान की भेंट चढ़ गई हैं।

‘‘क्या इससे भी अधिक भयंकर अपवित्रता हो सकती है जब लोकतंत्र के मंदिर व्यवधान और अशांति से तबाह हो जाएं? हमारे लोकतंत्र को जीवित रहना है और पहली परीक्षा संसदीय कार्यप्रणाली की है।

‘‘हम ऐसे हालातों का सामना कर रहे हैं, जहां राष्ट्रीय हित को दरकिनार कर दिया जाता है। राष्ट्र-विरोधी कथानक हवा में उछल रहे हैं। हम बहुत खतरनाक दौर में जी रहे हैं। राष्ट्रवाद की कीमत पर पक्षपातपूर्ण और व्यक्तिगत हितों को बढ़ावा देने वाली राजनीतिक असहिष्णुता और लापरवाह रुख को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। सामाजिक परामर्श की आवश्यकता है। युवा दिमाग और वरिष्ठ नागरिकों को हमारी मानसिकता को प्रभावित करके एक इकोसिस्‍टम बनाने के लिए एकजुट होना चाहिए।’’

इस अवसर पर भारत के माननीय उपराष्ट्रपति की धर्मपत्नी डॉ. (श्रीमती) सुदेश धनखड़, केरल के माननीय राज्यपाल श्री आर.वी. आर्लेकर, पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री वी. मुरलीधरन तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति भी उपस्थित थे।

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