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राज्‍य सभा के सभापति ने कहा कि व्यवधान करना सदन की अवमानना है


सांसद के विशेषाधिकार लोगों के अप्रत्यक्ष अधिकार हैं और व्यवधान पैदा करना कोई विशेषाधिकार नहीं है - श्री एम. वेंकैया नायडू

देरी करने वाले और दोषपूर्ण कानूनों की सामाजिक-आर्थिक लागत बहुत अधिक होती है

बढ़ते हुए व्यवधानों के कारण राज्‍य सभा की उत्पादकता जो पहले 100 प्रतिशत थी घटकर 65 प्रतिशत हो गई

श्री वेंकैया नायडू ने राम जेठमलानी स्मृति व्याख्यान दिया

Posted On: 18 SEP 2021 6:00PM by PIB Delhi

बढ़ते व्‍यवधानों के बारे में देश की विधानसभाओं के किसी भी पीठासीन अधिकारी द्वारा पहली बार जिक्र किया है। राज्‍य सभा के सभापति श्री एम. वेंकैया नायडू ने इस बारे में स्‍पष्‍ट रूप से कहा कि सदन की कार्यवाही में व्‍यवधान डालना सदन की अवमानना के बराबर है और व्यवधानकर्ता यह दावा नहीं कर सकते कि ऐसा करने का उनका विशेषाधिकार है।

‘‘क्या संसदीय कार्यवाही में व्यवधान एक सांसद का विशेषाधिकार और/या संसदीय लोकतंत्र का एक पहलू है?’’ विषय पर वर्चुअली दूसरा राम जेठमलानी स्मृति व्याख्यान देते हुए उपराष्‍ट्रपति ने सदन में सांसदों के व्यवहार के उच्च मानकों और विशेषाधिकारों की योजना की जरूरत वाले विभिन्न नियमों और अन्य प्रावधानों के आशयों के बारे में विस्‍तार से बात की और यह तर्क दिया कि व्यवधान व्यक्तिगत सदस्यों द्वारा प्रभावी प्रदर्शन के उद्देश्य को और सामूहिक रूप से सदन को नकारते हैं।

श्री नायडू ने दिवंगत श्री राम जेठमलानी को एक विद्रोही और कट्टरपंथी विचारक बताया और कहा कि वे कानूनी जांच में नवाचार लाए और उन्‍होंने अपने 77 साले के लंबे और सफल करियर के दौरान प्रत्‍येक बड़े मामलें में व्‍याख्‍या और अवसरों के नए रास्‍ते खोले।

संसद में व्यवधानों के बारे में बोलते हुए, श्री नायडू ने बताया कि राज्य सभा की उत्पादकता 1978 से मापी जा रही है। 1996 तक पहले 19 वर्षों के दौरान सदन की उत्पादकता शत-प्रतिशत से अधिक रही है और उसके बाद इसमें गिरावट शुरू हो गई है। सदन ने इन 19 वर्षों में से 16 वर्षों के दौरान 100 प्रतिशत से अधिक की वार्षिक उत्पादकता देखी है, लेकिन अगले 24 वर्षों के दौरान केवल 1998 और 2009 में दो वर्षों में ही ऐसा हुआ लेकिन पिछले 12 वर्षों में एक बार भी इतनी उत्‍पादकता नहीं रही।

उन्‍होंने यह भी कहा कि 2004-14 के दौरान राज्य सभा की उत्पादकता लगभग 78 प्रतिशत रही और उसके बाद यह घटकर लगभग 65 प्रतिशत रह गई। श्री नायडू ने जिन 11 सत्रों की अध्यक्षता की, उनमें से चार में उत्‍पादकता क्रमश: घटकर 6.80 प्रतिशत, 27.30 प्रतिशत, 28.90 प्रतिशत और 29.55 प्रतिशत रह गई। वर्ष 2018 के दौरान, व्‍यवधानों के कारण उत्‍पादकता 35.75 प्रतिशत दर्ज की गई जो सबसे कम है। पिछले मानसून सत्र (254वें) के दौरान राज्य सभा के निर्धारित समय का 70 प्रतिशत से अधिक समय गंवा दिया गया, जिसमें 76 प्रतिशत से अधिक मूल्यवान प्रश्नकाल शामिल रहें।

यदि व्‍यवधान का सांसदों द्वारा विशेषाधिकार का दावा किया जाता है तो उसके बारे में श्री नायडू ने तर्क दिया कि सदन के नियम, आचार संहिता, राज्य सभा के सदस्यों द्वारा अनुपालन किए जाने वाले विस्तृत संसदीय शिष्टाचार का स्पष्ट उद्देश्‍य सदन में सदस्‍यों द्वारा व्‍यवहार के उच्‍च मानकों को सुनिश्चित करना है ताकि सदन की कार्यवाही गंभीरता से चले जबकि सदस्‍यों को प्रदान किए गए विशेषाधिकारों की योजना का आशय सदस्‍यों द्वारा व्‍यक्तिगत रूप से और सदन द्वारा सामूहिक रूप से प्रभावी कार्य प्रदर्शन में समर्थ बनाना है। उन्होंने जोर देकर कहा कि तदनुसार, व्यवधान लोगों की इच्छा के विरुद्ध होने के अलावा सदन के प्रभावी कामकाज के सिद्धांत को भी नकारता हैं।

श्री नायडू ने सदन में बोलने की स्वतंत्रता, सदन या उसकी समितियों में दी गई किसी भी बात या वोट के लिए किसी भी कार्रवाई से छूट और गिरफ्तारी से स्वतंत्रता और अदालती कार्यवाही के दायित्व आदि जैसे सदस्यों को दिए गए विशेषाधिकारों का उल्लेख करते हुए कहा कि ऐसे विशेषाधिकार केवल वहीं तक उपलब्ध थे, जहां तक ​​वे सदन के लिए स्वतंत्र रूप से अपने कार्यों को करने के लिए जरूरी थे।

लोकसभा की विशेषाधिकार समिति की एक रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए, उपराष्‍ट्रपति ने जोर देकर कहा कि ‘‘विशेषाधिकार सदस्यों के अधिकारों को उनके घटकों (सदस्यों का चुनाव करने वाले) की चिंताओं को निडरता से रखने और आवाज उठाने के लिए सक्षम बना रहे हैं। इसलिए, इन्हें सदस्य के घटकों के अप्रत्यक्ष अधिकार कहा जा सकता है। विशेषाधिकारों का यही निचोड़ है, जिसे समझने की जरूरत है।’’ प्रसिद्ध ब्रिटिश संवैधानिक सिद्धांतकार एर्स्किन का उल्‍लेख करते हुए, श्री नायडू ने इस बात पर जोर दिया कि यह केवल सदन के सामूहिक कार्यों के प्रभावी निपटान के लिए है कि सदस्यों द्वारा व्यक्तिगत विशेषाधिकारों का आनंद उठाया जाता है।

श्री नायडू ने कहा कि विधायिका लोगों की चिंताओं को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने और प्रभावी कानूनों के माध्यम से समाधान खोजने के अलावा व्यापक सार्वजनिक चिंता के मुद्दों पर विचार-विमर्श करने और कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए हैं। श्री नायडू ने तर्क भी दिया कि इसके लिए कार्यात्मक विधायिका की आवश्यकता है न कि बाधित विधायिका की। उन्होंने यह भी कहा कि सदन के नियमों और विशेषाधिकारों की योजना के उल्लंघन में कोई भी व्यवधान, जो सदन को निष्क्रिय बनाता हो, सदन की अवमानना ​​के बराबर है, क्‍योंकि उन्‍हें लोगों की ओर से काम करने का अधिकार दिया गया है।

व्यवधानों के परिणामों के बारे में श्री नायडु ने कहा कि ये व्‍यवधान सदन के कार्य को पटरी से उतार देते हैं और अन्य सदस्यों को दिन की विभिन्न कार्यवाही में भाग लेने और पहचाने जाने से वंचित करते हैं। इससे कानून बनाने की प्रक्रिया में देरी होती है। श्री नायडू ने कहा कि ऐसे व्यवधानों के परिणामस्वरूप दोषपूर्ण और विलंबित कानूनों के सामाजिक-आर्थिक परिणाम काफी महत्वपूर्ण होते हैं।

अपने तर्क के समर्थन में कि व्यवधान सदन की अवमानना ​​के बराबर है, श्री नायडू ने एर्स्किन मे को याद किया और जोर देकर कहा कि कोई भी कार्य या चूक जो संसद के किसी भी सदन को उसके कार्यों के प्रदर्शन में बाधा डालती है, या जो किसी सदस्य को बाधित करती है या ऐसे सदन के अधिकारी को अपने कर्तव्य के निर्वहन में, या जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, ऐसा परिणाम देने की प्रवृत्ति हो, उसे अवमानना ​​के रूप में माना जा सकता है, भले ही अपराध का कोई उदाहरण न हो।

उपरोक्त के अलावा, सभापति श्री नायडू ने कहा कि निष्कर्ष में, कार्यवाही में व्यवधान सदन के नियमों, आचार संहिता, संसदीय शिष्टाचार और संसदीय विशेषाधिकारों की योजना के पीछे भावना और इरादे का एक निश्चित निषेध है। सभी का उद्देश्‍य सदस्‍यों द्वारा व्यक्तिगत रूप से और सदन द्वारा सामूहिक रूप से प्रभावी प्रदर्शन करना है। परिणामों को देखते हुए, कार्यवाही में व्यवधान स्पष्ट रूप से सदन की अवमानना ​​के समान है, जिसके तर्क से, त्रुटिपूर्ण सदस्यों द्वारा व्यवधान का विशेषाधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता है।

यह स्वीकार करते हुए कि पिछले कुछ वर्षों में संसदीय लोकतंत्र के एक पहलू के रूप में व्यवधान उभरा है, श्री नायडू ने जोर देकर कहा कि यह गंभीर चिंता का विषय है और इसे जल्द से जल्द रोकने की जरूरत है।

श्री नायडू ने सभी राजनीतिक दलों और कार्यपालिका सहित सभी हितधारकों से आत्मनिरीक्षण करने और विधायिकाओं में व्यवधान की अप्रिय गाथा को समाप्त करने के लिए आवश्यक कदम उठाने का आग्रह किया ताकि देश में संसदीय लोकतंत्र की गुणवत्ता और गरिमा को बढ़ाया जा सके और इसके अंगों की विश्वसनीयता बहाल किया जा सके।

श्री किरेन रिजिजू, कानून और न्याय मंत्री, श्री के.के. वेणुगोपाल, भारत के महान्यायवादी, श्री तुषार मेहता, भारत के सॉलिसिटर जनरल, श्री महेश जेठमलानी, वरिष्ठ अधिवक्ता और सांसद, राज्यसभा, श्री कार्तिकेय शर्मा, संस्थापक और प्रमोटर, आईटीवी नेटवर्क, श्री एस गुरुमूर्ति, संपादक, तुगलक, श्री रंजीत कुमार, भारत के पूर्व सॉलिसिटर जनरल, श्री गोपाल सुब्रमण्यम, भारत के पूर्व सॉलिसिटर जनरल, श्री पवन वर्मा, पूर्व सांसद, राज्यसभा और अन्य गणमान्‍य व्‍यक्ति भी इस वर्चुअल आयोजन के दौरान उपस्थित थे।

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